अनुवादक
की कलम से .....
डॉ नंदिनी
साहू के अँग्रेजी महाकाव्य “सीता” पर अनुवाद करने की मेरे मन में इच्छा क्यों पैदा
हुई ? यह सवाल मैं अपने आप से पूछ रहा हूँ क्योंकि यह अनुवाद मेरे लिए किसी अलौकिक
घटना से कम नहीं था। डॉ साहू की अँग्रेजी में लिखी हुई ‘सीता’(एक कविता) पढ़ने से पूर्व न तो
मेरा उनसे कोई परिचय था और न ही उनके बारे में पूर्व में मैंने विस्तार से पढ़ा था।
संयोगवश जब मैं इग्नू से अँग्रेजी में एम॰ए॰ कर रहा था और मैंने अपने वैकल्पिक
विषयों में ‘लोक-साहित्य’ का एक विषय चुना
था, जिसकी वह कोर्स-कोर्डिनेटर थीं। एक दिन अचानक अमेज़न के किंडल
में उनके नाम की कोई कृति खोज रहा था तो शून्य मूल्य पर उनकी ‘सीता’ स्क्रीन पर दिखाई दी। मैंने उसे डाउनलोड किया
और सरसरी निगाहों से उसे एक बार पढ़ा। उसी समय मैंने संकल्प किया कि अगर समय मिला
तो मैं इसका हिन्दी अनुवाद करूंगा। लॉक-डाउन पीरियड में मेरा यह संकल्प फलीभूत
हुआ।
अवश्य, अनुवाद के दौरान
उनका काफी सहयोग भी मिला। पहली बार जब मैंने मुक्त-छंद में इस कविता का अनुवाद
किया तो उन्होंने मुझे सलाह दी कि लययुक्त तुकांत वाली तीन पंक्तियों में अगर
अनुवाद करेंगे तो ज्यादा ठीक रहेगा। हुआ भी ऐसा ही, अँग्रेजी
के भारी-भरकम शब्दों के बावजूद भी सीता माता के आशीर्वाद से ( अनुवाद-प्रक्रिया के
दौरान मेरे लिए तो डॉ नंदिनी साहू सीता माता ही थी ) पता नहीं, कहाँ से सटीक शब्द याद आ जाते थे और राग-रागिनी वाला छंद भी बन जाता है
और देखते-देखते कब दस-पंद्रह दिनों में यह अनुवाद पूरा हो गया, पता ही नहीं चला। क्या यह किसी अलौकिक दिव्य घटना से कम है ? एक दशक से ढेरों अनुवाद करने के बाद भी सीता के अनुवाद की यह विचित्र
घटना मेरे मन-मस्तिष्क पर पूरी तरह छा गई है, जो मेरे लिए
शब्दातीत है और इस अनुवाद ने किस प्रकार मुझे विभिन्न रामायणों के अध्ययन हेतु
प्रेरित किया, जिसका उल्लेख मेरे इस प्राक्कथन में पाएंगे
।
पारंपरिक
आस्थाओं के अनुसार जितनी रामायणों के बारे में हमें जानकारी है, सब एक दूसरे
की या तो पूरक है या फिर एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं। अगर हम ध्यानपूर्वक अपने
शास्त्रों का अध्ययन करते हैं तो यह पाते हैं कि अलग-अलग रामायणों में अलग-अलग
कथानकों, वृतांतों अथवा दृष्टांतों का उल्लेख मिलता
है।भगवान शिव ने जिस रामायण का वर्णन किया है,उसमें सौ हज़ार
श्लोक हैं।हनुमान के रामायण में साठ हज़ार, वाल्मीकि के
रामायण में चौबीस हज़ार और दूसरे कवियों ने इससे कम श्लोकों के रामायणों की रचना की
हैं। अकादमिक विज्ञान वर्ग वाले अधिकांश रामायण को रामकथा अर्थात् राम की
अनौपचारिक कहानी मानते हैं, जबकि एक कवि अथवा लेखक
द्वारा औपचारिक रूप से लिखे गए कथानकों पर बहुत कम ध्यान देते हैं। जैसा कि पहले
ही कहा जा चुका है कि बहुत सारी रामकथाएँ या रामायण ऐसी हैं, जो एक दूसरे को कुछ हद तक प्रभावित करती हैं। विगत दो शताब्दियों से यूरोप
और अमेरिकन स्कॉलर रामायण पर शोधात्मक अध्ययन अलग-अलग तरीके से कर रहे हैं। दुर्लभ
रामायणों के अनुवादों का संग्रह कर रहे हैं ताकि रामायण के सुनिश्चित नतीजों को
सर्वसुलभ कराया जा सके।जहाँ यूरोपियन स्कॉलर रामायण को नस्लवाद के रूप से देखते
हुए औपनिवेशिक काल में शासक के दृष्टिकोण पर ध्यानाकर्षण करते हैं, जैसे आर्य बनाम द्रविड़, उत्तर बनाम दक्षिण, वैष्णव बनाम शैव, पुजारी बनाम राजा आदि, वैसे अमेरिकी विचारक औपनिवेशिक काल के बाद रक्षक की दृष्टि से देखते हुए
रामायण के मुख्य कारक जैसे लिंग-भेद अथवा जातीय-संघर्ष, जिसकी वजह से मनुष्य एक राक्षस बनने पर किस तरह आमादा हो जाता है, उन कारणों का विश्लेषण करने के साथ-साथ सामंतवादी शब्दों में अगर कहा जाए
तो भक्ति का रूप देखते हैं, जबकि भारतीय शोधार्थी अपने
नायकों और देवताओं को न्याय-संगत बताने के चक्कर में प्रतिरक्षात्मक रवैये को
अपनाने का प्रयास करते हैं। यही नहीं, आधुनिक स्कॉलर
रामायण का सटीक वर्गीकरण करने में भी अपने आपको अक्षम पाते हैं, क्या रामायण वास्तव में ऐतिहासिक ग्रंथ है (जैसाकि दक्षिणपंथी स्कॉलर
मानते हैं)? क्या यह समाज के लिए उठाया गया साहित्यिक
प्रोपेगंडा है (जैसा कि वामपंथी विचारक मानते हैं)? इसके
अलावा, क्या वास्तव में यह भगवान की कहानी हैं, जिसे भक्तगण मानते हैं? क्या केवल मानवीय
मस्तिष्क का कपोल कल्पित खाका है, जिससे आदर्श मानवीय
व्यवहार को अभिव्यक्त करने का प्रयास किया गया है? रामायण
की अनेक गाथाओं का विश्लेषण करने पर तीन महत्वपूर्ण दृष्टिकोण सामने आते हैं :-
1) पहला-आधुनिक दृष्टिकोण – जिसके अनुसार
वाल्मीकि की संस्कृत में लिखी रामायण मान्यता प्राप्त है।
2) दूसरा-आधुनिकोत्तर दृष्टिकोण– जिसके अनुसार सभी
रामायणों की मान्यता बराबर बराबर है।
3) तीसरा-आधुनिकोत्तरोत्तर दृष्टिकोण– इस दृष्टिकोण के
अनुसार विश्वास करने वाले के दृष्टिकोण का स्वागत होना चाहिए।
कुछ आलोचक भारतीय मानसिकता पर हजारों सालों से असर डालने वाली इस महाकथा
को असंगत (इररेशनल) मानते हैं, जबकि आधुनिक शिक्षा का
उद्देश्य समाज को संगत (रेशनल) बनाना है। सन् 1987 में रामानंद सागर द्वारा
निर्मित ‘रामायण’ पर आधारित
सीरियल को जब प्रत्येक रविवार की सुबह दिखाया जाता था तो समूचा देश उस समय के लिए
जड़-सा हो जाता था, ठीक वैसा ही जैसे अब सन 2020 में कोविड-19
से बचाव हेतु सरकार द्वारा लॉक-डाउन पीरियड में दूर-दर्शन पर रामायण दिखाते समय
देश थम जाता था। जहाँ राम जन्मभूमि विवाद ने राष्ट्र के पंथ-निरपेक्ष हृदय को पूरी
तरह से कुचल दिया था, वहीं 2013 में इसे भारतीय औरतों की
दयनीय अवस्था का प्रमुख कारण माना। इतना होने पर इस महाकाव्य को आधार बनाकर
राजनेताओं द्वारा फायदा उठाने, नारीवादी लेखक-लेखिकाओं
द्वारा आलोचनात्मक तथ्य खोजने और एकेडेमीशियन द्वारा विखण्डित (deconstructed) मानने के बावजूद भी आज भी लाखों लोगों में आशा व आनंद संचरण करने का स्रोत
माना जाता है।
रामायण के साहित्य का चार कालों में अध्ययन किया जा सकता है। पहला काल
दूसरी शताब्दी तक का वह है, जब वाल्मीकि रामायण का
अंतिम रूप लगभग तैयार हो गया था। दूसरा काल (दूसरी शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी
तक) का है, जब संस्कृत, प्राकृत
भाषाओं में अनेकानेक नाटकों तथा कविताओं की रचना हुई। इस काल में बौद्ध तथा जैन
परंपराओं में भी राम को खोजने का प्रयास कर सकते हैं, मगर
पौराणिक साहित्य में राम को विष्णु के रूप में देखा जा सकता है। तीसरा काल दसवीं
शताब्दी के बाद का है, जब इस्लाम के बढ़ते वर्चस्व के
खिलाफ रामायण जन-सामान्य की जुबान का ग्रंथ बन गया। इस काल में ‘रामायण’ ज्यादा भक्तिपरक नजर आया, जिसमें राम को भगवान तथा हनुमान को सबसे प्रिय भक्त एवं दास बताया गया।
अंत में, चौथे काल में उन्नीसवीं शताब्दी से रामायण
यूरोपियन एवं अमेरिकन दृष्टिकोण से बहुत ज्यादा प्रभावित होने लगी और आधुनिक
राजनैतिक व्यवस्थाओं के आधार पर उचित न्याय पाने के लिए रामायण में Deconstruction,
Reimagination तथा decoding शुरू
हो गई।
ईसा पूर्व (500 बी.सी से लेकर 200 बी.सी तक) रामकथा मौखिक रूप से यात्रा
करती रही है और बाद में संस्कृत भाषा के अंतिम रूप में रची गई। जिसे लेखन का रूप
दिया वाल्मीकि ने, और जिसे आदि काव्य अर्थात् पारम्परिक
तौर पर प्रथम कविता के रूप में गिना जाता है। परवर्ती सारे कवि वाल्मीकि को राम की
कविता का जनक मानते है। वाल्मीकि के इस कार्य को यायावर (घुमक्कड़) जातियों ने
चारों तरफ फैलाया। मौलिक कार्य में मुख्य दो कार्य संग्रह प्राप्त होते हैं, पहला उत्तर और दूसरा दक्षिण। पहले सात अध्यायों में राम का बचपन और अंतिम
अध्यायों में राम द्वारा सीता का परित्याग दर्शाया गया है। तत्कालीन ब्राह्मणों ने
इस कथा को संस्कृत में लिखने का घोर विरोध किया, मगर
मौखिक परंपरा (श्रुति) को जारी रखा, जबकि बौद्ध और जैन
स्कॉलरों ने मौखिक शब्दों की तुलना में लिखना ज्यादा पसंद किया। जिससे यह अनुमान
लगाया जाता है कि पाली और प्राकृत भाषा में पहली बार रामकथा का उल्लेख मिलता है।
प्रांतीय रामायणों की रचना की शुरुआत दसवीं सदी के बाद होती है। सबसे पहले दक्षिण
भारत में बारहवीं सदी में, फिर पूर्वी भारत में पंद्रह
सदी में तथा बाद में 16वीं शताब्दी में उत्तर भारत में प्रांतीय रामायणों की रचना
हुई। महिलाओं की अधिकांश रामायण मौखिक होती थी। उनका मुख्य उद्देश्य घरेलू
परंपराओं तथा अन्य पर्वों पर आधारित गानों में प्रयोग करना होता था। यद्यपि यह बात
भी सही है, सोलहवीं शताब्दी में दो महिलाओं ने रामायण
लिखी, तेलुगु में मोआ तथा बंगाली में चंद्रावती ने।
रामायण लिखने वाले अधिकांश पुरुष लेखक अलग-अलग गतिविधियों से संबंध रखते थे। बुद्ध
रेड्डी (जमींदार घर से), बलराम दास और सारला दास (पिछड़ी
जाति से) तथा कंबन मंदिर में संगीत बजाने वाली जातियों से संपृक्त थे। सोलहवीं
शताब्दी में मुगल सम्राट अकबर ने अपनी जनता की संस्कृति का ध्यान रखते हुए रामायण
का अनुवाद संस्कृत से पर्सियन में करने का आदेश दिया तथा चित्रकारों को इस
महाकाव्य को पर्सियन तकनीकी का प्रयोग करते हुए रेखांकित करने का भी हुकमनामा जारी
किया। रामायण के ये सारे चित्र राजस्थान, पंजाब, हिमाचल प्रदेश के राजाओं के महलों की नक्काशी में आसानी से देखे जा सकते
हैं।
सन् 2014 में प्रोफेसर नंदिनी साहू ने सीता की नजरों से राम-कथा का यथार्थ रूपांतरित
संस्करण ‘सीता’ (कविता) के रूप में द पोएट्री सोसाइटी ऑफ
इंडिया, गुड़गांव द्वारा प्रकाशित हुआ। समय की मांग के
अनुरूप त्रेता युगीन राम राज्य की महिलाओं पर इस महाकाव्य में कवयित्री ने महिला
विमर्श पर आधुनिक दृष्टिकोण डालते हुए अनसूया, कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, ताड़का, अहिल्या, मंथरा, श्रुतकीर्ति, उर्मिला, मांडवी, सीता, शबरी, शूर्पनखा, तारा, सुरसा, लंकिनी, त्रिजटा, मंदोदरी, सुलोचना, धोबिन
आदि का एक ही कैनवास पर चित्र उकेरकर तत्कालीन सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक और आध्यात्मिक चेतना के
स्वरों में महिलाओं की भूमिका पर इस तरह निरपेक्ष भाव से दृष्टि डाली है कि सही
अर्थ तक पहुँचने के लिए आपको इस महाकाव्य को अनेक बार पढ़ना होगा,भले ही तत्कालीन कुछ पात्र जैसे राम की बहिन शांता,
शंबूक की जननी छूट गए है ।
कवयित्री
नंदिनी साहू ने इस महाकाव्य के दूसरे सर्ग में सीता की उत्पत्ति के बारे में संकेत
किया है, जिसकी पृष्ठभूमि यह है कि मिथलांचल कि शस्य-श्यामला उर्वर भूमि किसी के
अभिशाप से बंजर भूमि हो गई थी। न तो वहाँ अन्न की पैदावार होती थी और न ही किसी भी
तरह की कोई वर्षा। देखते–देखते भयंकर दुर्भिक्ष के कारण वहाँ
के निवासी लाखों की सख्या में अस्थि-पिंजरों में बदलने लगे, तब विदेही महाराज जनक ने प्रजा की आर्त पुकार सुनी।
अर्द्धरात्रि में विवस्त्र होकर बंजर कृषिक्षेत्र में अगर वे हल चलाएँगे तो उनकी
दयनीय अवस्था देखकर मेघराज इंद्र को दया आ जाएगी और वर्षाजल से सींचकर पुनः उस
भूमि को उर्वर बना देंगे। शायद यह उस जमाने का लोक-प्रचलित अंधविश्वास अथवा
टोना-टोटका था। मगर कवि के अनुसार हल चलाते समय अचानक उसकी नोक सूखी मिट्टी के ढेर
में दबे ढँके कुम्भ से टकरा गई, उस कुम्भ में सुदूर
प्रांत के ऋषि वंशज ब्राह्मण के किसी अप्सरा के साथ गोपनीय प्रणय का परिणाम था। यह
परिणाम ही सीता थी। दूसरे सर्ग की पंक्तियाँ इस प्रकार है :-
“ जनक-नंदिनी-जानकी- मेरा नाम सीता
मैं इकलौती पुत्री, राजा जनक मेरे पिता
यज्ञ-पूजिता पावन धरती मेरी माता ।
हो सकता है लोग उसे सामाजिक तिरस्कार के भय से कपड़ों में लपेट कर मटके में
डाल मरने के लिए खुला छोड़ गए थे। क्या यह सीता का अवांछित जन्म था? संतानहीन
महाराज जनक तो सीता जैसे अमूल्य कन्या-रत्न को धरती माता से प्राप्त कर हर्ष विभोर
हो उठे। यह विचित्र कथा सुनने पर विश्वास नहीं हो पाता। कवयित्री सीता की कथा को
आगे बढ़ाते हुए तीसरे सर्ग में लिखती हैं:-
‘पिनाक’ विशाल दिव्य शिव-धनुष ,
जनक को मिला परशुराम
से, जब
वे हुए उनकी तपस्या से खुश
और मिला उन्हें वरदान, रखो तुम उसे सुरक्षित अपने पास ।
धनुर्वेद में
उल्लेखित,भगवान
शिव ने यह धनुष
परशुराम को दिया, उनके तप पर हो खुश
कैसे होता मुझे उसकी पवित्रता का ज्ञान ?
पता नहीं क्यों, कोई दु:स्वप्न
धुंधली रेखा बन उभरता
मेरे पिता के नयन
जब भी वे करते
इसके दर्शन ।
सीता जनकपुर
में न केवल नगरवासियों से वरन् माता-पिता के भावाकुल हृदय में वह हमेशा बसी रही।
शस्त्र-संचालन की सभी विद्याओ में वह पारंगत होती रही। शादी के लिए पिता ने
सर्वश्रेष्ठ वर ढूँढने के लिए चारों दिशाओ में स्वयंवर का असाधारण न्यौता भेजा कि
जो कोई वीर महादेव शिव के प्राचीनतम धनुष को उठाकर प्रत्यंचा खींचकर बाण को चढ़ा
देगा, वही उसकी पुत्री के लिए योग्य वर होगा। भगवान शिव के प्रति सीता के हृदय
में भी गहन श्रद्धा थी और आँगन में बने देवालय में रखे इस धनुष की सफाई के दौरान
सीता ने उसे उठाकर एक जगह से दूसरी जगह रखा था। सीता के निवेदन करने पर फिर से उसे
यथास्थिति पर रखने के लिए कहा। शायद वह यह नहीं जानना चाहते थे कि सीता कोई साधारण
कन्या नहीं है, वरन दिव्य शाक्तियों से संपन्न है। तभी
उन्होंने घोषणा कि जो कोई इसकी प्रत्यंचा को चढ़ाएगा,वही सीता
का पति होगा। जब सीता को शिव धनुष की महिमा का ज्ञान हुआ तो उसने महादेव से अपराध
क्षमा करने की प्रार्थना की। शिव मंदिर से पूजा अर्चना करके जैसे ही वह बाहर निकल
रही थी, वैसे ही दो श्यामवर्ण वाले सुगठित, सुंदर, देहयष्टि के राजकुमार
विश्वामित्र के साथ उधर से गुजर रहे थे, उनकी हँसी मधुर
संगीत की ध्वनियाँ पैदा करते हुए सीता की चेतना को भंग कर दिया।लज्जा, संकोच के भाव रक्तिम वर्ण के रूप में सीता के चेहरे पर उभरने लगे। बाद में
उसे ज्ञात हुआ कि वे दोनों राजकुमार अयोध्या के नरेश महाराज दशरथ के पुत्र राम और
लक्ष्मण हैं। राम को देखते ही शिव मंदिर में की गई प्रार्थना सीता को याद आ गई और
पहली नज़र में ही राम को अपने वर के रूप में स्वीकार कर लिया। मगर सीता को यह चिंता
होने लगी कि अगर राम शिव धनुष नहीं उठा सके या किसी दूसरे योद्धा ने उसे उठा लिया
तो उसके जीवन पर क्या गुजरेगा। पुलस्त्य ऋषि के कुल में उत्पन्न लंकापति रावण शिव
धनुष को उठाने में असक्षम रहा,जबकि राम इस परीक्षा में खरे
उतरे। जैसे ही सीता राम को जयमाला पहनाने जा रही थी, वैसे ही
वहाँ भगवान शिव के परम भक्त क्रोधी परशुराम का प्रादुर्भाव होता है और वे शिव धनुष
को स्पर्श करने वाले राम की हत्या के लिए तत्पर हो जाते हैं। मगर राम ने अपने मधुर
व्यवहार से माहौल को ठंडा कर दिया। और सीता की शादी हो जाती है। अयोध्या के राजमहल
में नववधू सीता का
दूसरा भविष्य इंतज़ार कर रहा था। कुछ समय बाद राम को चौदह वर्ष का वनवास हुआ और
सीता ने हठ करके राम के साथ जाने का निर्णय किया, भले
ही उसे अनेक असाधारण अग्नि–परीक्षाओं से गुजरना पड़ा। मगर
सीता को इस बात की संतुष्टि है कि बाहर की अग्नि में बिना झुलसे यह भीतर ही भीतर
आँसुओं को पिये एकाकी स्त्री के जीवन के विपरीत अपने पति के अनन्य और मूर्त्त
अनुराग की अनुभूति को प्राप्त कर सकी। लक्ष्मण के भाई और भाभी के प्रति अनन्य
प्रेम, वन में रहने वाले वनवासियों, वानरों, रीछों, राक्षसों
की सदभावना, हनुमान जैसे महाबली से मातृवत् आदर सम्मान, निषादराज (केवट) के चतुर-प्रेम, गिद्धराज जटायु
की आर्त-पुकार, मेरे प्रति
धर्मात्मा विभीषण का आदर, अशोक-वाटिका में सखी त्रिजटा का
स्नेह, कुंभकर्ण का मेरे प्रति पुत्रीवत् सहृदय आचरण और
रावण की निंदा – ऐसे सारे अनुभव चौदह वर्षों में
सीता को प्राप्त हुए, जो कि आज भी वर्णनातीत है। आज भी
शोधार्थी सीता के अपहरण के उद्देश्य को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं। कुछ
विचारक सूर्पणखा के अपमान का प्रतिशोध लेना मानते हैं, तो
अन्य विचारक अशोक वन में सीता को रख कर वन की विपतियों से बचने का उपकरण समझते
हैं। तभी तो त्रिजटा को सीता की सुरक्षा के लिए नियुक्त किया। छठवें सर्ग में
कवयित्री डॉ नंदिनी साहू कहना चाहती है:-
“ ऋषि-वेश
में आया रावण
हमारे द्वार पर करने भिक्षाटन
रेखा पार करते ही
ले गया दशानन ।
मेरे बचाव को आया जटायु
रावण ने काटे उसके पखेरू
अपराध अपहरण का हुआ मेरु ।
धोखा, तुम्हारा नाम नहीं है नारी
लेकिन मैंने सीखी औरत की कमजोरी
स्वर्ण-हिरण ही उसका अरि ।
तुमने मुझे कहा था हिरण नहीं हो सकता स्वर्ण
प्रकृति पैदा नहीं करती स्वर्ण प्राणी-धन
करने से उल्लंघन,प्रताड़ित हुआ मेरा जीवन ।
साधु के वेश में भिक्षा माँगते समय भी चाहता तो वो उसे अकेला देख कुटिया
में प्रवेश कर सीता का शील हरण कर सकता था, मगर लक्ष्मण रेखा (मर्यादा
रेखा) तो स्वयं सीता ने पार की थी। क्या जरूरी था उसके लिए अनजाने पुरुष को भिक्षा
देना, जबकि वह यह जानती थी कि किसी स्त्री के घर से
बाहर निकला हुआ एक पग उसे नर्क की और ले जा सकता है? आज
के इस युग में चतुर, चालाक, धूर्त्त, लम्पट लोगों के सामने भोला होना क्या मूर्खता का पर्याय तो नहीं है। इस
तरह कवयित्री ने अपराध का सारा ठीकरा सीता के सिर पर ले लिया जैसे स्वर्णवर्ण वाले
हिरण की चमड़ी को प्राप्त करने का लोभ छोड़ न कर पाना, वन गमन की विपतियों, सकटों और असुविधाओ के बारे
में पति राम द्वारा समझाने पर भी, स्त्री हठ कर बैठना
और माया, मोह, लोभ, काम से विरक्त रहकर जीवन यापन करना। परम-त्यागी देवर लक्ष्मण की उपस्थिति
से तो भले ही सीता ने काम पर विजय पा ली थी, मगर सोने
के आभूषणों के प्रति उसके अवचेतन मन में समाया मोह स्वर्णवर्ण बाले हिरण के चर्म
को प्राप्त करने की इच्छा में बदल गया। क्या मिट्टी से पैदा हुई सीता यह भूल गई थी
कि सच्चा सोना तो मिट्टी ही है, तब सुन्दर वन्य जीव की
निर्मम हत्या करने की इच्छा उसके मन में क्यों जागृत हुई? इस हत्या का दण्ड विधाता ने महादण्ड के रूप में परिणत कर दिया। सोने की
लंका में एक दीर्घ अवधि तक पति से बिछुड़कर एकाकी निस्सार जीवन जीने पर विवश कर
दिया। क्या राम के अनन्य प्रेमरूपी सोने के सामने सुनहरे हिरण का चर्म बड़ा था? सीता की आँखों पर से पर्दा तो तब हटा जब हनुमान ने पलक झपकते ही सारी सोने
की लंका को अपनी पूँछ के माध्यम से जला दिया और अपनी पहचान बताने के लिए राम-नाम
से अंकित सोने की मुद्रिका फेंककर सोने की असत्यता को उजागर किया। तपस्वी हनुमान
उन्हें चमकती हुए माया के वश से भरे कनक से मुक्त करना चाहते थे। कवयित्री के
शब्दों में :-
“ रावण की भभक उठी
क्रोधाग्नि
दिया आदेश सैनिकों को
हनुमान की पूंछ में जलाओ वहिन ।
जैसे ही जली हनुमान की पूंछ
वह हुआ बहुत खुश
ईश्वर के आशीष से बच गया अशेष।
मैं आश्चर्य और
मनोरंजन से अभिभूत
गगन में हनुमान उड़ा विद्युत-गति
करते हुए अतुल्य सोने की लंका भस्मीभूत।
चारों तरफ आग ही आग
आधी लंका का नाश
फिर डुबाई जलती पूंछ समुद्र-सराग ।
कवयित्री यह कहना चाहती हैं कि सोने की लंका को अग्नि में जलते देख सीता
को जीवन की अग्नि-परीक्षा का अहसास हो गया और समुद्र तट पर अग्नि परीक्षा देकर, सीता ने अपनी गहरी संवेदना से अयोध्या पहुँचकर फिर से एक बार पत्नी
प्रताड़ित तुच्छ व्यक्ति की वार्ता से दुखी होकर अपने चरित्र के संबंध में शंका के
विषैले कीट से ग्रस्त होकर राज-आज्ञा का अंधानुपालन किया। लक्ष्मण को गर्भवती भाभी
को रामराज्य से दूर जंगल राज्य का रास्ता दिखाना पड़ा। गर्भवती सीता के सामने और
सर्जनात्मक विस्फोट करने का उचित अवसर प्रदान किया। राम-यश की आधारशिला के रूप में
कथानक को लेकर आदिकवि ऋषि वाल्मीकि सीता के दूसरे पिता बनकर उभरे और उनके स्नेह
संरक्षण में सीता ने दो पुत्रों लव और कुश को जन्म दिया, उन्हें सर्वोत्तम संस्कार दिए, शस्त्र-शास्त्र
में शिक्षित किया, सुयोग्य बनाया। महाकवि के संसर्ग में
उनकी वाणी में संगीत का जादू उतर गया। राम की इस कथा का मधुर पाठ करते हुए जब वे
अयोध्या पहँचे तो उन्हें आदर के साथ राज दरबार में बुलाया गया और जब उन्हें अपना
परिचय देने के लिए पूछा गया तो बालोचित चपलता से उन्होंने उत्तर दिया कि राजा
प्रजा-जनों का पिता है, इसलिए आप ही हमारे पिता हैं। दुख इस
बात का है कि उन्होंने किसी मूर्ख प्रजा की घरेलू निरर्थक बकवास सुनकर अपनी
गर्भवती पत्नी सीता को देश निकाला दे दिया। यह क्या समूचे रघुवंश का सिर ऊँचा कर
सकता है? हमारी माता सीता है। हमारी दूसरी चुनौती और
क्या हो सकती थी! मगर उन परिस्थितियों ने सीता के भीतर
छुपी महाशक्ति पिता भी है, आप तो केवल कहलाने के लिए
पिता हैं। यह कहते हुए लव और कुश समूचे राम दरबार को स्तब्ध और अवाक् छोड़कर
वाल्मीकि आश्रम लौट गए। उनका अनुसरण करते हुये भावाकुल राम, लक्ष्मण, हनुमान, भरत,शत्रुघ्न, मंत्री सुमंत सभी वाल्मीकि आश्रम
पहुँचकर अयोध्या वापस ले जाने के लिए आग्रह किए थे। मगर सीता ने उसे अस्वीकार कर
दिया और हनुमान के माध्यम से अपनी अनिर्वचनीय पीड़ा को राम के पास पहुँचाया कि उसे
उचित समय की प्रतीक्षा है, अपने पुत्रों लव और कुश को
योग्य बनाना है, साथ ही साथ समाज में व्याप्त
अंध-विश्वासों, कुरीतियों, स्त्री
विरोधी पाखंडों से युद्ध कर उन्हें पराजित भी करना है। कुछ समय बाद राम ने अश्वमेध
यज्ञ की घोषणा की। जिसके अश्व को युवा लव-कुश ने पकड़ लिया और युद्ध की चुनौती देते
हुये राम के समस्त दल को मूर्च्छित कर जब राम पर धनुष चढ़ाने लगे, तो सीता ने उन्हें रोक दिया कि शस्त्र का ज्ञान रखने वाले को शस्त्र की
उपयोगिता जाननी चाहिए। पिता पर शस्त्र उठानेवाला पुत्र अपयश का भागी होता है। सीता
के निदेश पर राम की चरण वंदना करते हुए छोड़ दिया। उस
समय भी राम ने सभी को अयोध्या चलने का आग्रह किया। मगर सीता ने उनके इस आग्रह को
ठुकरा दिया कि उसे घर लौटने पर पहले जैसी प्रतिष्ठा नहीं मिल सकती है, चाहे वह कितनी भी निरपराध क्यों न हो। मैं तो अपने लिए उसी समय मर गई थी,
जिस समय आपने मुझे वन में छोड़ने का निर्देश दिया था। मेरे जीवन का
अंतिम दिवस होता, अगर महर्षि वाल्मीकि वहाँ नहीं होते।
मैं अब तक लव-कुश के लिए केवल ज़िंदा थी, अब आपको सौंपते
हुए इस अटल विश्वास के साथ कि उनके प्रति सदैव प्यार में आप किसी भी प्रकार की कमी
नहीं रखेंगे, मैं अपसे विदा लेती हूँ और उस मिट्टी में
मिल जाना चाहती हूँ, जिस मिट्टी के पट के माध्यम से
मेरे पिता ने मुझे सुरक्षित आश्रय दिया था। लंका-दहन के समय में इस बात को समझ गई
थी कि आखिरकार मिट्टी में मिलना है तो क्यों नहीं ऐसे कुछ कार्य किए जाए जिसके
माध्यम से इस मिट्टी को अमरता प्रदान हो।कवयित्री डॉ नंदिनी साहू ने सीता के
माध्यम से राम से कुछ सवाल पूछे :-
"क्या नारी देह में बसते हैं पाप-पुण्य, हे भगवान ?
या रहते हैं वे किसी मनुष्य के अंतर-मन ?
क्या मैं दोषी, अगर रावण ने किया मेरा अपहरण ? "
"क्या
होगी नारी जिम्मेदार, किसी आकस्मिकता से हुआ उसका कौमार्य-भग्न ?
उसके
शरीर का हुआ धर्षण, क्या बदल जाएगा उसका तन-मन ?
क्या प्रेम हो जाएगा विलीन या बदल जाएगा उसका मन ?
बिना उसकी गलती के, क्या हो नहीं सकती कोई
दुर्घटन ?
अगर अनब्याही बेटी पर हुआ आक्रमण, घर वाले कर देंगे उसका
निष्कासन?
अगर ऐसा पत्नी के साथ हुआ, तो क्या देना चाहिए निर्वासन ?
धरती में
समा जाने की किंवदंती को कवयित्री डॉ॰ नंदिनी साहू ने किसी अलौकिक चमत्कार के रूप
में ग्रहण किया है तभी तो वह लिखती है :-
चमत्कार! जब मैं कर रही थी निशर्त आत्म-विसर्जन
अचानक मेरे पैरों के नीचे की फटी जमीन ,
और भीतर से पैदा हुआ एक स्वर्ण सिंहासन ।
धरती
माता, परम नारी, प्रकट हुई बाहर
ले गई मुझे अपनी गोद में बैठाकर भीतर
थम गया हो मानो समय और ज्वार ।
मगर
आधुनिक युग में इतनी सहजता से यह चमत्कार पाठकों को हजम नहीं होता है । हो सकता है
कि सीता पहले से ही खोदे हुए मौत के अंधे कुँए में छलांग लगाते हुए उसने
सूर्यवंशियों के सामने कई अनुत्तरित और प्रज्ज्वलित प्रश्न छोड़ दिये, जिसका उत्तर सोचने
के लिए उन्हें आगामी सहस्रों वर्षों तक कई साधना की
यात्रा करनी होगी, जबकि समय
के विचित्र उस अंधे कुँए में सूर्य की कोई भी किरण प्रवेश नहीं पा सकती है।
पहले सर्ग में ही कवयित्री सीता को कई नामों से संबोधित करती है जैसे सीता, वैदेही, जानकी, रामा।
भले ही,कहो उसे- सीता, जानकी,वैदेही, रामा
मगर
रहेगी वह हमेशा ही वामा
हर महिला में बन आदर्श का जामा ।
अलग-अलग रामायणों
के अनुसार सीता की उत्पत्ति की अलग-अलग मान्यताएँ है जैसे जनकपुर के राजा जनक और
रानी सुनयना की दत्तक पुत्री है, भूमि देवी की वास्तविक पुत्री है। दण्डक वन से इनका
अपहरण हो जाता है और अशोक वाटिका में रखा जाता है। जनकपुर नेपाल के दक्षिण बिहार
के उत्तर पूर्वी मिथिला के जनकपुर और सीतामढ़ी, नेपाल की सीमा
के पास, सीता का जन्म स्थान माना जाता है। वाल्मीकि रामायण
में सीता को भूमि से उत्पन्न बताया जाता है, जबकि “रामायण मंजरी” में जनक और मेनका से उत्पत्ति, तो महाभारत रामोपाख्यान तथा विमल सूरी की ‘पउम
चरियम’ में सीता को कुछ जनक की वास्तविक पुत्री, तो रामायण के कुछ संस्करणों में रावण के अत्याचारों से प्रताड़ित वेदवती का
सीता के रूप में जन्म लेना तो उत्तर पुराण के गुणभद्र के अनुसार अलकापुरी के अमित
वेदय की पुत्री मीनावती, रावण और मंदोदरी के गर्भ से जन्म
लेकर रावण का अंत करने के लिए अवतरित, तथा अवधूत रामायण और
संघदास के जैन संस्करण में सीता को रावण की पुत्री वसुदेव
वाहिनी के रूप में माना जाता है जो कि रावण की पत्नी
विद्याधर माया की पुत्री है। स्कन्द पुराण में वेदवती का जिक्र आता है जो पदमावती
बनती है और विष्णु के अवतार लेने पर वे उनसे शादी करते है। वेंकटेश्वर बालाजी के
तिरुमलाई में उनका निवास है। रामायण के परवर्ती संस्करणों में वेदवती रावण की
मृत्य के लिए जन्म लेने की कसम खाती है, क्योंकि रावण ने
उसके साथ छेड़खानी की थी। अग्नि देवता उसे जला नहीं सकते, वह उसे छुपाकर सीता की जगह अपहरण के पूर्व रख देते हैं। इस तरह यह
डुप्लीकेट सीता थी, जिसे रावण उठाकर लंका लाया। वास्तविक
सीता वेदवती की अग्नि-परीक्षा के बाद राम के पास लौट जाती है। जम्मू में वेदवती को
वैष्णो देवी के रूप में जाना जाता है। जिसने भैरव की गर्दन काट दी थी, जो उसे जबरदस्ती अपनी पत्नी बनाना चाहता था। बाद में भैरव के कटे सिर ने
माफी मांगते हुए, यह कहा कि- वह उन परम्पराओं का अभ्यास
कर रहा था। जिसके लिए एक स्त्री की आवश्यकता थी, जो उसे
पुनर्जन्म के चक्रों से मुक्ति प्रदान कर सके। तब उसने कहा- "तुम मेरी पूजा
करो, मैं तुम्हें मुक्त कर दूँगी" कहते हुए वह देवी में
बदल गयी। अधिकांश देवियों के शक्ति पीठ स्थल पर रक्तबलि दी जाती है, जबकि वैष्णोदेवी एक अलग शक्ति पीठ है, क्योंकि
वह शाकाहारी देवी है। जो वैष्णव संप्रदाय की पुष्टि करती है। क्या राम-लक्ष्मण–सीता जंगल में रहते समय माँस भक्षण करते थे? आज
भी यह सवाल अनुत्तरित है। जबकि प्राचीन काल में मांसाहार को घृणित निगाहों से नहीं
देखा जाता था। कई पेटिंग में राम और लक्ष्मण को जंगली जानवरों का आखेट करते हुए
दिखाया गया है, कुछ-कुछ में तो मांस भूनते हुए भी। यह
दृश्य क्षत्रिय परिवार के अनुरूप है। संस्कृत में मांस का अर्थ फूलों के मांस से
लिया जाता है। बाद मै बौद्ध, जैन धर्म और वैष्णव
संप्रदाय के विस्तार के साथ शाकाहारी को जातिप्रथा में उच्चता का प्रतीक माना जाने
लगा। वाल्मीकि रामायण में जानवरों के आखेट से सीता अप्रसन्न रहती है।
इस तरह अलग-अलग कहानियों को अलग-अलग रूप देकर आज भी पढ़े-लिखे लोगों को भी
सत्यता से दूर रखा जाता है। क्या साहित्य हमें वैचारिक गुलामी की ओर ले जाता है
अथवा साहित्य सच्चा जीवन जीने के लिए प्रेरित करता है? यह
बात सत्य है कि सीता ने अपने जीवन को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत कर सम्पूर्ण
विश्व में यह बात अवश्य स्थापित की है कि भारतीय स्त्री और पुरुष का सम्बन्ध
अत्यंत ही घनिष्ठतम होता है।
कवयित्री
“सीता” महाकाव्य के चौथे सर्ग से :-
मैं हूँ राम की कर्तव्यपरायण, सुंदर पत्नी
मेरा जीवन, धर्म
की सबसे अच्छी कहानी
अनेक यतनाएँ झेलने के बाद भी,सुनो मेरे मुंह-जबानी।
महात्मा ज्योतिष फूले अपनी "सार्वजनिक सत्यधर्म" पुस्तक में
रामायण की बातों को काल्पनिक व अविश्वसनीय मानते हैं। धनुष यज्ञ में रावण की छाती
पर पड़े हुए शिव / परशुराम के धनुष को कभी घोड़ा
बनाकर खेलने वाली जानकी को भेड़िये की तरह आसानी से कंधे पर डालकर भागने में रावण
कैसे सफल हो गया? दूसरी बात यह कि यदि रावण की मानव के
अलावा अलग जाति थी, तो जनक राजा ने दूसरी जाति के रावण को
अपनी लड़की के स्वयंवर समारोह में आने का निमंत्रण कैसे दिया? इससे यह सिद्ध होता है कि राम और रावण की जाति अलग–अलग
नहीं थी। ऐसा लगता है कि रामायण का इतिहास उस समय केवल लोगों का दिल बहलाने के लिए
कल्पना के आधार पर लिखा होगा।स्वयंवर को लेकर कवयित्री खुद आधुनिक समाज के सामने
प्रश्न रखना चाहती है :-
“ वह विशाल धनुष बना, मेरे स्वयंवर का आधार
दूल्हे के पिता की पसंद पर मन ही मन करने लगी विचार ,
क्या उन्हें पसंद है
मेरा यह स्वयंवर ?
पति की पसंद नारी के लिए महत्वपूर्ण
या पिता की शर्त- शारीरिक शक्ति की अपूर्व प्रदर्शन?
क्या ताकत ही महिला के लिए बिन्दु-आकर्षण ?
अगर
स्वयंवर के बारे में सोचा जाए तो यह एक वाहियात और स्त्री विरोधी परंपरा थी।
क्योंकि उसमें योग्य-अयोग्य, युवा-वृद्ध कोई भी आदमी भाग ले सकता है। अगर रावण
शिव-धनुष की प्रत्यंचा चढ़ा लेता तो नियमानुसार उसकी शादी रावण से हो जाती। रावण एक
राजा था तो फिर वह भिक्षा कैसे मांगता! रावण तो राक्षस संस्कृति का प्रवर्तक था, आर्य संस्कृति का घोर विरोधी था।
कवयित्री डॉ नंदिनी साहू इस महाकाव्य में सीता के विद्रोह को देखती हैं कि
राम ने सीता को सास-ससुर की सेवा करने से बढ़कर कोई दूसरा धर्म नहीं है, कहकर उससे जंगल में जाने से रोकना चाहा। मगर सीता ने यह कहकर विद्रोह का
बिगुल बजाया कि राम के बिना विरह के शोक में एक पल भी वह ज़िंदा नहीं रह सकती
है।सत्यवान और सावित्री का दृष्टान्त देकर वन-गमन का औचित्य सिद्ध किया।
कवयित्री ने मिथकों को वैज्ञानिक रूप देने के लिए स्वर्ण के रंगवाले हिरण, स्वर्ण आभूषण का मोह, सोने की लंका, आदि से जोड़कर विपत्तियों के आवाहन का कारण नारी के लोभ को ठहराया है। सीता
के चरित्र-चित्रण में स्त्री-विमर्श की भरपूर गुंजाइश थी। राजमहलों के भीतर कैद
रहनेवाली महिलाओं की मर्यादाओ पर आधुनिक चिंतन भी अपरिहार्य है। सीता को लंका पुरी
में चौदह माह तक निर्वासित जीवन जीना पड़ा। रावण वध के बाद जब सीता राम से मिलने
आयी तो उसका खिला हुआ चेहरा देखकर राम ने कहा– “मैंने
तुम्हें प्राप्त करने के लिए यह युद्ध नहीं जीता है। तुम पर मुझे संदेह है। जैसे
आँख के रोगी को दीपक की ज्योति अच्छी नहीं लगती, वैसे ही तुम
मुझे आज अप्रिय लग रही हो। तुम स्वतंत्र हो, यह दस दिशाएँ
तुम्हारे लिए खुली है। मैं अनुमति देता हूँ,तुम्हारी जहाँ
इच्छा हो, चली जाओ। रावण तुम पर अपनी दूषित दृष्टि डाल
चुका है। ऐसी अवस्था में, मैं तुमको ग्रहण नहीं कर
सकता। तुम चाहो तो लक्ष्मण, भरत या शत्रुघ्न किसी के भी
साथ रह सकती हो और चाहे तो सुग्रीव या विभीषण के साथ भी रह सकती हो।"
(वाल्मीकि रामायण युद्धखण्ड)। पन्द्रहवें सर्ग में इन्हीं विचारों को लेकर सीता के
माध्यम से कवयित्री डॉ नंदिनी साहू ने स्त्री-विमर्श को उजागर किया है :-
"सीते ! मैं आज से करता हूँ तुम्हें मुक्त ;
कायर रावण अब हुआ समाप्त ,
की उसने अकेली, असहाय नारी अपहृत ।
हनुमान,लक्ष्मण,सुग्रीव,विभीषण
युद्ध-विजय के पीछे
थे जरूर
पर रखना था पुरखों का सम्मान-अक्षुण्ण ।
तुम्हें देखते ही मेरी आँखें भेदती मेरा हृदय
रही तुम अकेली अनेक दिन-रात दूसरे आदमी के निलय
न थे वहाँ कोई वंशज, न पति, देने को रक्षा सदय !
कैसे मानूँ, रावण ने नहीं किया होगा तुम्हारा सतीत्व भंग ?
आखिर आकर्षक है तुम्हारे प्रत्येक अंग !
अब तुम्हारी गरिमा हुई धूमिल और छबि कुरंग ।
ऐसे भी था,
तुम्हारे कुल का न अता, न पता
पहले से ही तुम्हारी आधी-अधूरी पवित्रता
अब तुम सती नहीं, हो गई पतिता।
रहती क्या नारी अकेली अपराजित ?
कभी बहती धारा,कभी लता,तो कभी गीत-संगीत
सुरक्षा हेतु पड़ती हर समय एक आदमी की जरूरत ।
राज-गरिमा नहीं बना सकती तुम्हें पत्नी
और नहीं रही तुम बनने योग्य रानी,
जब से पार की तुमने 'लक्ष्मण-रेखा ' की निशानी।
अब तुम हो अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र
मुझे मत दिखाओ अपना कुत्सित चेहरा, जाओ अन्यत्र
खोजो अपना कोई हमदर्द, रक्षक, प्रदाता या सन्यत्र । ”
राम के ऐसे कठोर शब्द सुनने के बाद सीता के दिलो-दिमाग पर क्या गुजरी होगी, इसका भी उल्लेख कवयित्री ने सोलहवें सर्ग में किया है। इन कठोर शब्द–बाणों ने सीता का हृदय छलनी कर दिया था और उसके भीतर एक विद्रोहिणी नारी
ने जन्म ले लिया था। इस विद्रोहिणी नारी को आदि कवि वाल्मीकि ने उभारा है, क्योंकि राम के व्यवहार से वह भी उद्वलित हो गए थे। राम का गुण-गान करने
वाले वाल्मीकि भी तब सीता के पक्ष में खड़े हो गए थे और सीता पूरे प्रतिशोध के साथ राम
पर बरस पड़ी। उसने सबके सामने ही राम से कहा –
“जब हनुमान आए मुझे देखने, क्यों नहीं किया परित्यक्त?
तब उसने कराया मुझे तुम्हारी गहरी विरह-वेदना से अवगत
क्या यह नहीं, भावुक नारी को धोखा देने जैसा असत ?
अगर बताते हनुमान,कर देती जीवन-लीला समाप्त
अब नहीं रहा मेरे पति का मुझ पर विश्वास-मत
मगर तुमने मेरी पीठ पीछे किया विश्वासघात ।
तुम 'मर्यादा नरोत्तम’, सभी नरों में श्रेष्ठ-नर
फिर निर्दोष नारी पर इतना अत्याचार !
रावण के अपराध के लिए, तुम्हारी पत्नी जिम्मेदार ?
आप ऐसी कठोर, अनुचित, कर्णकटु और रूखी बात मुझे क्यों सुना रहे हैं। जैसे बाजारू आदमी किसी
बाजारू स्त्री से बोलता है, वैसे ही व्यवहार आप मेरे
प्रति कर रहे हैं। जब आपने लंका में मुझे देखने के लिए हनुमान को भेजा था, उसी समय मुझे क्यों नहीं त्याग दिया? यदि आप
मुझे उसी समय त्याग देते, तो मैंने भी हनुमान के सामने
ही अपने प्राण त्याग दिए होते। तब आपको जीवन को संकट में डालकर यह युद्ध आदि का
व्यर्थ परिश्रम नहीं करना पड़ता और न आपके मित्र लोग अकारण कष्ट उठाते। आपने मेरे
शील-स्वभाव पर संदेह करके अपने ओछेपन का परिचय दिया है। इसके बाद सीता ने लक्ष्मण
से कहकर चिता तैयार करवायी और वह यह कहकर कि “यदि मैं सर्वथा
निष्कलंक हूँ, तो अग्निदेव मेरी रक्षा करें”, अग्नि–चिता में कूद पड़ी। वाल्मीकि ने लिखा है कि
अग्नि ने सीता को रोममात्र भी स्पर्श नहीं किया। किन्तु वास्तव में हुआ यह होगा कि
सीता को अग्नि में कूदने से पहले ही बचा लिया गया होगा, वरन् आग की लपटें किसी को नहीं छोड़ती। जनता के सामने राम की शंका समाप्त
हो गई थी और उन्होंने उसे अंगीकार कर लिया था। अधिकांश लेखकों द्वारा सीता के जीवन
को वन में त्रासदी (tragedy) के तौर पर व्यक्त किया जाता है।
वे जंगल में जीवन को गरीबी के साथ जोड़कर देखते हैं, न
कि बुद्धि के तौर पर। साधु के पास कुछ नहीं होने पर भी कभी भी गरीब नहीं होता। वे
लोग भूल जाते है कि भारत में धन-संपदा केवल कार्यकारी तौर पर मानी जाती है न की
स्व-निर्माण के सूचक के तौर पर। सीता भी महाभारत की कुंती, उपनिषदों की जाबाला और भरत की माँ शकुंतला की तरह एकल माता है। महाभारत
में अष्टावक्र की कहानी में वह अपने दादा, उद्दालक को
अपना पिता मानता है। जब तक कि उसका चाचा श्वेतकेतु संशोधन नहीं कर लेता। यह ठीक
इसी तरह है जिस तरह वाल्मीकि के राम के पुत्रों लव-कुश को समझा नहीं देते। केरल के
वायनाड़ (wayanad)में सीता का उसके दोनों पुत्रों के साथ
मंदिर बना है। केरल की रामायण में कई मोड़ ऐसे हैं जो वाल्मीकि रामायण में नहीं
मिलते, वायनाड़ के स्थानीय लोगों का मानना है कि रामायण
की घटनाएँ उनके इर्द-गिर्द हुईं।
फादर कामिल बुल्के की पुस्तक ‘रामकथा’ के अनुसार सीता के जन्म को लेकर तरह-तरह की कहानियाँ कही जाती हैं।
इण्डोनेशिया, श्रीलंका तथा भारत के आसपास के क्षेत्रों
में सीता के पिता के रूप में कभी राजा जनक, तो कभी रावण
और यहाँ तक कि दशरथ को भी दर्शाया गया है।
1. जनक आत्मजा– वाल्मीकि द्वारा रचित आदि रामायण में राम के क्रिया-कलापों की तारीफ में
सीता को जनक की पुत्री बताया गया है। महाभारत में चार बार रामकथा की आवृति होती
है। मगर कहीं पर भी सीता के रहस्यमय जन्म की कहानी का वर्णन नहीं है। यहाँ तक कि
रामोपाख्यान में भी नहीं, सब जगह उसे जनक आत्मजा ही कहा
है। रामोपाख्यान की शुरुआत में विदेहराजो जनकः सीता तस्य आत्मणाविभो।
हरिवंश की रामकथा में भी सीता की अलौकिक उत्पत्ति का उल्लेख नहीं मिलता।
जैन पउमचरियं के अनुसार जनक की पत्नी विदेहा से सीता अपने धवल आभामण्डल के साथ उत्पन्न हुई थी। जन्म होते
ही आभामण्डल को एक देवता ने उसे उठा लिया था और किसी अन्य राजा के यहाँ छोड़ दिया।
वाल्मीकि रामायण में जनक का कोई पुत्र नहीं है, किन्तु
ब्रह्माण्ड पुराण, विष्णु पुराण, वायु पुराण में ‘अनुमान’ जनक का पुत्र कहा गया है। कालिका पुराण में ऐसा उल्लेख है कि नारद निसंतान
जनक को यज्ञ कराने का परामर्श देते हुए कहते है, कि
यज्ञ के प्रभाव से दशरथ को चार पुत्र उत्पन्न हुए हैं। तदनुसार जनक यज्ञ के लिए
क्षेत्र तैयार करते समय एक पुत्री के अतिरिक्त दो पुत्रों को भी प्राप्त करते हैं।
2॰ भूमिजा– सीता की अलौकिक उत्पत्ति का वर्णन
वाल्मीकि रामायण में दो बार कुछ विस्तारपूर्वक किया गया है; कतिपय अन्य स्थलों पर भी इनके संकेत मिलते हैं। एक दिन जबकि राजा जनक यज्ञ–भूमि तैयार करने के लिए हल चला रहे थे, एक
छोटी-सी कन्या मिट्टी से निकली। उन्होंने उसे पुत्री–स्वरूप
ग्रहण किया तथा नाम सीता रखा। सीता जन्म का यह वृतान्त अधिकांश रामकथाओं में मिलता
है।
संभव है कि भूमिजा सीता की अलौकिक जन्म-कथा सीता नामक कृषि की अधिष्ठात्री
देवी के प्रभाव से उत्पन्न हुई हो। कृषि की उस देवी से सम्बन्ध रखने वाली सामाग्री
का वर्णन किया गया है। मैं यह नहीं कहता कि यह वैदिक देवी और रामायणीय सीता
अभिन्न है। वैदिक सीता ऐतिहासिक न होकर सीता अर्थात् लांगल-पद्धति के मानवीकरण का
परिणाम है।
बलरामदास (अरण्यकाण्ड) लिखते हैं कि हल जोतते समय जनक ने मेनका को देखकर
उसी के समान एक कन्या प्राप्त करने कि इच्छा प्रकट की थी। मेनका ने उनकी यह इच्छा
जानकार उसको आश्वासन दिया कि मुझसे भी सुंदर कन्या तुझको प्राप्त होगी।
वाल्मीकि रामायण के उत्तरकाण्ड में जो वेदवती की कथा मिलती है, वह भी उस समय उत्पन्न हुई
होगी। इस वृतान्त में सीता के पूर्व जन्म का वर्णन किया गया है, अतः उसकी उत्पत्ति के समय सीता के लक्ष्मी के अवतार होने का सिद्धान्त
सर्वमान्य नहीं था, कथा इस प्रकार है:-
ऋषि कुशध्वज की पुत्री वेदवती नारायण को पति-रूप में प्राप्त करने के
उद्देश्य से हिमालय में तप करती है। उसके पिता की भी ऐसी अभिलाषा थी। किसी राजा को
अपनी पुत्री प्रदान करने से इंकार करने पर कुशध्वज का उस राजा द्वारा वध किया गया
था। किसी दिन रावण की दृष्टि उस कन्या पर पड़ती है। उसके रूप-लावण्य से विमोहित
होकर वह उसे उसके केशों से पकड़ता है। अपना हाथ असि के रूप में बदलकर वेदवती उससे
अपने केशों को काटकर अपने को विमुक्त करती है। अनन्तर वह रावण को शाप देकर
भविष्यवाणी करती है, कि मैं तुम्हारे नाश के लिए अयोनिजा के रूप में पुनः जन्मग्रहण करूंगी।
अन्त में, वह अग्नि में प्रवेश करती है और बाद में जनक
की यज्ञभूमि में उत्पन्न होती है।
श्रीमद् भागवतपुराण तथा ब्रह्मवैवर्तपुराण में इस कथा में परिमार्जन किया
गया है। कुशध्वज और उसकी पत्नी मलवाती लक्ष्मी की उपासना करते हैं और उनसे उनको पुत्री स्वरूप में प्राप्त करने
का वर पाते हैं। जन्म ग्रहण करते ही लक्ष्मी वैदिक मंत्रो का गान करती है; इस कारण उन्हें वेदवती का नाम दिया जाता है। कुछ समय के उपरान्त वह हरि को
पति रूप में वरण करने के लिए तप करने लगती है तथा रावण द्वारा अपमानित हो जाने पर
वह उसे शाप देती है कि मैं तेरे विनाश का कारण बन जाऊँगी। अनन्तर वह योग के बलपर
अपनी शरीर त्याग देती है और बाद में सीता के रूप में उत्पन्न होती है। यह स्पष्ट
है कि सीता तथा लक्ष्मी के अपमानित होने के विश्वास की प्रेरणा से वेदवती की कथा
को नवीन रूप दिया है।
3॰ रावणात्मजा – सीता-जन्म की कथाओं में, जिनका हमें यहाँ
विश्लेषण करना है, सर्वाधिक प्राचीन तथा प्रचलित कथा वह
है जिसमें सीता को रावण की पुत्री माना गया है। भारत, तिब्बत, खोतान (पूर्वी तुर्किस्तान), हिन्देशिया और श्याम में हमें यह कथा मिलती है। भारतवर्ष में इस कथा का प्राचीनतम रूप
वसुदेवहिणिड में सुरक्षित है। इसके अनुसार विद्याधर मय
ने रावण के पास जाकर उसके साथ अपनी पुत्री मन्दोदरी के विवाह का प्रस्ताव रखा।
शरीर के लक्षणों का ज्ञान रखने वालों ने कहा कि मन्दोदरी की पहली संतान अपने कुल
के नाश का कारण बनने वाली है, रावण मन्दोदरी का
सौन्दर्य देखकर मोहित हो चुका था, अतः उसने उसकी पहली
संतान का त्याग देने का निर्णय कर उसके साथ विवाह किया। बाद में मन्दोदरी ने एक
पुत्री को जन्म दिया था। उसे रत्नों के साथ एक मंजूषा में रखकर मंत्री को आदेश
दिया कि उसे कहीं छोड़ दिया जाए। मंत्री ने उसे जनक के खेत में रख दिया। बाद में
जनक से कहा गया कि यह बालिका हल की रेखा से उत्पन्न हुई है। जनक ने उसे ग्रहण
किया। महारानी धरिणी को सौंप दिया। गुणभद्र के उत्तरपुराण की निम्नलिखित कथा में
वेदवती वृतांत तथा वसुदेवहिणिड की कथा का समन्वय किया गया है--
“अलकापुरी के राजा अमितवेग कि पुत्री राजकुमारी मणिमती विजयार्थ (विन्ध्य)
पर्वत पर तप करती थी। रावण ने उसे प्राप्त करने का प्रयास किया। सिद्धि में विघ्न
उत्पन्न होने के कारण मणिमती ने क्रुद्ध होकर निदान किया कि मैं रावण कि पुत्री
बनकर उसके नाश का कारण बन जाऊँगी। उस निदान के फ्लस्वरूप वह मन्दोदरी के गर्भ से
उत्पन्न हुई। उसका जन्म होते ही लंका में भूकंप आदि अनेक अपशकुन होने लगे। यह
देखकर ज्योतिषियों ने कहा कि यह कन्या रावण के नाश का कारण होगी। इस पर रावण ने
मारीच को यह आदेश दिया कि वह उसे किसी दूर देश में छोड़ दे। मन्दोदरी ने कन्या को
द्रव्य तथा परिचयात्मक पत्र के साथ-साथ एक मंजूषा में रख दिया। मारीच ने उसे
मिथिला देश कि भूमि में गाड़ दिया, जहाँ वह उसी दिन
कृषकों द्वारा पाई गई। कृषक उसे जनक के पास ले गए। मंजूषा को खोलकर जनक ने उसमें
से कन्या को निकाल लिया तथा उसका पुत्रीवत पालने का आदेश देकर अपनी पत्नी वसुधा को
सौंप दिया। “महाभागवत पुराण” में भी
इसका उल्लेख है कि सीता मन्दोदरी से उत्पन्न हुई है।
सीता मंदोदरीगर्भे संसुता चारूरुपिणी।
क्षेत्रजा तनयाप्यस्य रावणस्य रघुत्तम॥
गुणभद्र के उत्तरपुराण के अनुसार रावण की पटरानी की कन्या की जन्म पत्रिका
में उसके द्वारा पिता का नाश होने की भविष्यवाणी के कारण वह समुद्र में फेंकी जाती
है और बचाने पर कृषकों द्वारा पाली जाती है। इसका नाम लीलावती है।
4. पदमजा
सीता - रामायण
की भूमिजा सीता की कथा इसमें स्वीकृत है। सीता और लक्ष्मी का अभेद है। लक्ष्मी के
अनेक नामों में एक नाम पदमा है और नामों ने सम्भवतः पदमजा सीता की आधारभूमि तैयार
की है।
रावण एक विशिष्ट स्थान पर बार-बार जाता है। वह आरम्भ में वहाँ एक पर्वत
देखता है, त्तपश्चात नगर देखता है,फिर जंगल देखता है, उसके बाद एक विस्तृत गड्ढा
और अंत में कमलयुक्त एक सुंदर सरोवर। वहाँ एक लिंग स्थापित कर रावण सरोवर के कमलों
से शिव उपासना करता है। एक कनक-पदम पर उसे एक कन्या दृष्टिगत होती है,जो लक्ष्मी की है। वह उसे पुत्री के रूप में ग्रहण कर लंका ले आता है और
मन्दोदरी को दे देता है। नारद एक दिन मन्दोदरी के यहाँ पहुँचते है और उसकी गोद में
उस कन्या को देखकर कहते है कि यह कन्या बाद में रावण की प्रेमपात्री बनेगी (कन्या
भविष्यति अभिलाषभूमि चपलेद्रस्य)। यह सुनकर मन्दोदरी उस कन्या को स्वर्ण पेटिका
में बंद करके किसी दूर देश में छोड़ आने का आदेश देती है। यज्ञ के लिए स्वर्ण हल
चलाते हुए जनक उसे प्राप्त करते हैं।
5॰ रक्तजा
सीता – सीता
जन्म की अनेक अर्वाचीन कथाओं में सीता ऋषियों के रक्त से उत्पन्न मानी जाती है।
रावण दिग्विजय करते-करते दण्डकारण्यवासी ऋषियों से राजकर लेते हैं। द्रव्य
के अभाव में वे रावण को रक्त की कुछ बूंदे प्रदान करते हैं, जिन्हें ऋषि गृत्समद के पात्र में एकत्र किया जाता है। उस पात्र में कुश
का किंचित रस था, जिसमें गृत्समद के मंत्रो के फलस्वरूप
लक्ष्मी विद्यमान थी। रावण उस पात्र को लंका ले जाता है और मन्दोदरी को उसे यह
कहकर देता है:- “इसमें तीव्र विष भरा है” कुछ समय बाद रावण दूसरी विजय-यात्रा के लिए चला जाता है। यह सुनकर कि रावण
परस्त्रियों के साथ रमण करता है, मन्दोदरी आत्महत्या के
उद्देश्य से उस रक्त का पान कर लेती है और गर्भवती हो जाती है। इस पर वह
तीर्थयात्रा के लिए निकलती है। और गर्भ प्रसव करके कुरुक्षेत्र में भ्रूण गाड़ देती
है। बाद में जनक के यज्ञ के लिए वहाँ हल जोतते समय एक कन्या भूमि से निकलती है।
जनक उसे पुत्रीवत ग्रहण कर उसका नाम सीता रखते है।
उत्तर भारत की एक अन्य कथा इस प्रकार है:- जनक ने महादेव के धनुष के
प्रभाव से रावण को कई बार पराजित किया था। अद्भुत रामायण के वृतांत के अनुसार रावण
राजस्व के स्थान पर ऋषियों का रक्त लेता है। इस पर ऋषि शाप देते है, कि इस रक्त से तुम्हारा नाश होगा। रावण उस शाप की अवज्ञा करता है और उस
रक्त को एक घड़े में रखकर उसे लंका ले जाता है। उस समय से लंका राज्य में अनावृष्टि
आदि अनिष्ट घटित होते हैं, शास्त्री रावण से कहते है कि
जब तक यह रक्त लंका में विद्यमान है विपत्तियों का अंत नहीं होगा। यह सुनकर रावण
जनक से प्रतिकार लेने के उद्देश्य से उस घड़े को मिथिला में गड़वाते हैं। अब वहाँ भी
वे ही अनिष्ट घटित होने लगते हैं। मंत्री राजा को रानी के साथ जाकर हल जोतने का
परामर्श देते है। ऐसा करते हुए जनक उस घड़े को प्राप्त करते हैं, जिसमे ऋषिरक्त से उत्पन्न सीता दिखलाई पड़ती है। इसके बाद सर्व अनर्थ शांत
हो जाते है। अन्यत्र भी उसका उल्लेख किया गया है कि मिथिला में रक्त गड़ा था, कन्या नहीं।
6. अग्निजा सीता – लंका के साथ सीता के सम्बन्ध का अंतिम
रूप आनन्द रामायण में उपलब्ध है। सीता-जन्म का यह वृत्तान्त वेदवती की कथा पर
आधारित प्रतीत होता है। कठोर तपस्या के उपरान्त राजा पदमाक्ष ने लक्ष्मी को
पुत्रीरूप में प्राप्त किया था और उसका नाम पद्मा रखा था। पद्मा के स्वयंवर के
अवसर पर युद्ध हुआ और उसका पिता पदमाक्ष मारा गया। यह देखकर पद्मा ने अग्नि में
प्रवेश किया, एक दिन वह अग्निकुंड से निकालकर रावण
द्वारा देखी जाती है। जिस पर वह शीघ्र ही अग्नि में प्रवेश करती है। किन्तु रावण
अग्नि को बुझा देता है और उसकी राख में पाँच दिव्यरत्न देख कर उन्हें एक पेटिका
में रख देता है और लंका ले जाता है। लंका में कोई भी उस पेटिका को उठा नहीं सकता, उसे खोला जाता है और उसमें से एक कन्या मिलती है। मंदोदरी के परामर्श से
यह पेटिका मिथिला में गाड़ दी जाती है। बाद में उसे एक शुद्र पाता है और खोलकर तथा
उसमें एक कन्या देखकर राजा को सौंपता है। जनक उसे पुत्री रूप में स्वीकार करते है।
7. फल अथवा वृक्ष से उत्पन्न – दक्षिण भारत के एक वृतांत के अनुसार
लक्ष्मी एक फल से उत्पन्न होती है और वेदमुनि नामक एक ऋषि द्वारा उनका पालन पोषण होता है उनका नाम सीता है और बाद में वह समुद्र तट पर
तपस्या करने जाती है। उनके सौंदर्य के विषय में सुनकर रावण उसके पास पहुँचता है, जिस पर वह अग्नि में प्रवेश कर भस्मीभूत हो जाती है। राख को एकत्र कर
वदमुनि उसे एक स्वर्णयष्टि में बंद कर देता है। बाद में यह यष्टि रावण के पास
पहुँच जाती है, जो उसे अपने कोषागार में रख देता है।
कुछ समय के उपरान्त उस यष्टि से आवाज सुनाई पड़ती है। उसे खोला जाता है और उसमें एक
लघु कन्या के रूप में परिणत सीता दिखाई पड़ती है। ज्योतिषी कहते हैं कि यह कन्या सिंहल
के नाश का कारण सिद्ध होगी: इस कारण रावण उसे एक स्वर्ण मंजूषा में बन्द करके
समुद्र में फेंक देता है। यह मंजूषा लहरों पर तैरती हुई बंगाल की ओर बह जाती है और
गंगा में प्रविष्ट होकर एक खेत तक पहुँच जाती है। वहाँ कृषक उसे देखते हैं और अपने
राजा को दे देते हैं।
8. दशरथात्मजा – दशरथ की पटरानी मन्दोदरी के सौंदर्य का
वर्णन सुनकर रावण दशरथ के पास जाता है और मंदोदरी की याचना करता है। मन्दोदरी यह
सुनकर कि उसका पति उसे दे देने को उद्यत–सा हो रहा है, अपने भवन में जाती है और जादू के द्वारा एक दूसरी मन्दोदरी उत्पन्न करती
है, जिसे रावण ले जाता है। बाद में वास्तविक मन्दोदरी
से सच वृतांत सुनकर दशरथ घबराते हैं। यह नई मन्दोदरी अक्षतयोनि है जिससे रावण को
धोखा होने का पता चलेगा। अनन्तर दशरथ लंका जाते है और छिपकर उस नवीन मन्दोदरी से
मिलते हैं। बाद में रावण-मन्दोदरी का विवाह मनाया जाता है और मन्दोदरी के एक
पुत्री उत्पन्न होती है। उसकी जन्म कुंडली से पता चलता है कि उसका पति रावण-हंता
सिद्ध होगा। अतः उसे पेटिका में बंद करके समुद्र में फेंका जाता है। महर्षि कली
उसे पाते हैं और उसका पालन-पोषण करते हैं।
अग्नि परीक्षा के बाद सीता ने राम जैसे अविश्वासी पुरुष को त्याग क्यों
नहीं दिया। शायद रचनाकार अपने कथानक में और मानविक पुट देना चाह रहा था। तभी तो
सीता के गर्भ में पल रहे बच्चे की चिंता के लिए उसने जीवन के शेष दिन वाल्मीकि के
आश्रम में बिताए। यह तो माँ की ममता ही थी कि इतना कष्ट सीता ने सहन किया। कँवल भारती के अनुसार हजारों साल की यात्रा के बाद भी हिन्दू जनता राम के अपराध
में कोई प्रतिरोध नहीं देखती, राम को अपराधी नहीं मानती, दुःख तो इस बात का है कि स्त्री विमर्श से जुड़ी अनेक हिन्दू स्त्रियाँ
सीता की पीड़ा से जुड़ न सकी। वे अभी भी स्त्री-विरोधी चौपाइयों का श्रद्धा से पाठ
करती हैं और गद-गद होती हैं। कारण एक ही था अवतारवाद और कर्म-फल के सिद्धान्त की
मान्यता ने जनता में यह विश्वास पैदा कर दिया कि राम मनुष्य नहीं हैं, वह विष्णु के अवतार हैं। जो कुछ कर रहे हैं या उनके साथ घट रहा है, वह सब उनकी लीला मात्र है। सीता एक विद्रोहिनी स्त्री थी। वह “असूर्यम्पश्या” की तरह नहीं रहकर अपने पति के साथ
जाना, क्या विद्रोह नहीं था। सीता ही वह पहली स्त्री थी
जिसने राम के द्वारा राक्षसों के वध किए जाने का घोर विरोध किया। वाल्मीकि रामायण
के अनुसार उसने कहा था– यह आप अच्छा काम नहीं कर रहे हैं।
मुझे चिंता हो रही है कि इतनी हिंसा के बाद आपका कल्याण कैसे होगा? आप इन लोगों की क्यों हत्याएँ कर रहे है? इन्होंने
आपका क्या बिगाड़ा है? बिना अपराध के ही लोगों को मारना
संसार के लोग अच्छा नहीं समझते हैं।यह अधर्म है। शस्त्र का उपयोग करने से आपकी
बुद्धि कलुषित हो गयी है। जब आप वल्कल वस्त्र धारण कर वन में आ गए है; तो मुनिवृत्ति से ही क्यों नहीं रहते? हम
अयोध्या में नहीं है, तपोवन में ही हैं। यहाँ के
अहिंसामय धर्म का पालन करना ही हमारा कर्तव्य होना चाहिए।
राम ने सीता को उत्तर दिया था,“ मैं अपने प्राण छोड़
सकता हूँ, तुम्हारा और लक्ष्मण का भी त्याग कर सकता हूँ, किन्तु ब्राहमणों के लिए की गयी अपनी प्रतिज्ञा को कदापि नहीं छोड़ सकता।”
सवाल यह नहीं है कि राम ने क्या उत्तर दिया वरन् सवाल यह है कि जिस सीता
ने मनु-व्यवस्था को तोड़कर राम को धर्म का उपदेश दिया हो, उसके उस विद्रोह को कवयित्री ने
रेखांकित क्यों नहीं किया?
अग्निपरीक्षा - राम-रावण युद्ध हो चुका है, सीता लौट आई है। यह
तो ज्ञात ही नहीं था कि वास्तविक सीता का कभी हरण ही नहीं हुआ। वास्तविक सीता तो
अग्नि में सुरक्षित रही। रावण तो केवल उनके प्रतिबिंब को उन जैसी बनावटी मूर्ति को
ले गया था। तब भी लोकापवाद के लिए स्थान था ही। रामचन्द्र ने सीता को अथवा उनके
प्रतिबिंब को सार्वजनिक तौर पर अपनी शुद्धि प्रमाणित करने के लिए कहा। प्रतिबिंब
के अग्नि-प्रवेश द्वारा और आग में से वास्तविक सीता के सकुशल बाहर आने से सीता की
शुद्धि प्रमाणित हुई।
शायद सीता के
अग्नि परीक्षा का यह वर्णन बाद में जोड़ा गया है। इसीलिए महाभारत समेत प्राचीन
पुराणों में भी उदाहरणार्थ – हरिवंश, विष्णुपुरण, वायुपुराण, भागवत पुराण, नृसिंह पुराण, अनामक जातकम, स्याम का रामजातक, खोतानी और तिब्बती रामायण, गुणभद्रकृत, उत्तर पुराण में अग्नि परीक्षा का निर्देश नहीं मिलता।
रामोपाख्यान में विभीषण और लक्ष्मण सीता को राम के पास ले जाते हैं।
पउमं चरीय में भी राम और सीता के पुनर्मिलन के समय देवताओं की पुष्पवृष्टि
तथा सीता की निर्मलता के पक्ष में उनकी सक्षमता के अतिरिक्त किसी भी परीक्षा का
उल्लेख नहीं मिलता। एक बात अवश्य लिखी गई है कि सीता त्याग और सीता के पुत्र
द्वारा राम सेना से युद्ध के पश्चात राम अपने परिवार के साथ अयोध्या लौटे तो राम
ने सीता को लोगों के सामने अपने सतीत्व का प्रमाण देने को बात कही तो सीता ने कहा-
मैं तुला पर चढ़ सकती हूँ, आग में प्रवेश कर सकती हूँ, लोहे की तपी हुई लंबी छड़ धारण कर सकती हूँ अथवा मैं उग्र विष भी पी सकती
हूँ। राम ने अग्नि परीक्षा को उचित समझा और 300 हाथ गहरा अग्निकुण्ड खोदने का आदेश
दिया। अग्नि प्रज्वलित होने पर सीता ने सतीत्व की शपथ खाकर प्रवेश किया। सीता के
प्रवेश करते ही वह कुण्ड स्वच्छ जल से भर गया। उसके बाद जब राम ने उससे क्षमायाचना
की और अयोध्या में निवास करने का अनुरोध किया तो सीता ने इंकार कर दिया और जैन
धर्म में दीक्षा लेने के लिए चली गई।
कथा सरितसागर में राम द्वारा सीता की परीक्षा लेने का उल्लेख नहीं है। मगर
वाल्मीकि आश्रम में अन्य ऋषि सीता के चरित्र पर संदेह करते हैं, तो सीता स्वयं कोई भी परीक्षा देने को तैयार हो जाती है। उसके लिए लोकपाल टीटिभा सरोवर बनाते है। जब सीता जल में प्रवेश
करती है, तो पृथ्वी देवी प्रकट होकर उसे अपने गोद में
ले लेती है और सरोवर के उस पार पहुँचा देती है। यह देखकर ऋषि राम को शाप देना
चाहते हैं, मगर सीता ऐसा नहीं करने का अनुरोध करती है।
अन्य रचनाओं में अधिकांश मध्यकालीन रामायणों में माया सीता अग्नि में
प्रवेश करती है और वास्तविक सीता उसमें से प्रकट हो जाती है। आनन्द रामायण के
अनुसार सीता अपने हरण के पूर्व तीन रूपों में विभक्त हो गई थी, अग्नि परीक्षा में समय वह एक हो जाती है। कृतिवास रामायण में मन्दोदरी का
शाप अग्निपरीक्षा का कारण माना गया। मन्दोदरी ने राम के दर्शनों की आशा में सीता
को यह कहकर शाप दिया था कि तुम्हारा यह आनन्द अकस्मात निरानन्द हो जाएगा। लंका की
स्त्रियों ने भी उस अवसर पर सीता को शाप दिया था।
रामायणमसिही में मन्दोदरी सीता को राम के पास ले जाती और राम स्वयं सीता
को आग में डालते हैं।
ब्रहमचक्र के अनुसार सीता ने राम का संदेह देखकर आग जलाने का आदेश दिया और
सीता के अग्नि में प्रवेश करते ही अग्नि बुझ गई। कश्मीरी रामायण में सीता को चौदह
दिनों तक जलते हुए दिखाया है और बाद में वह सोने की तेजस्विता की तरह बाहर निकलती
है। ‘अद्भुत रामायण’ और ‘मलयन रामायण’ में रावण द्वारा सीता की छाया
सीता या माया सीता का अपहरण किया जाता है, न की
वास्तविक सीता का। यह वास्तव में वेदवती होती है, और अग्नि
परीक्षा का अर्थ वास्तविक सीता को वापस लाना है। ग्रीक माइथोलोजी में भी मूल
नायिका की जगह डुप्लिकेट नायिका के अपहरण के कथानक मिलते हैं। हेरोडोटस(Herodotus) कहता है कि पेरिस (Paris)द्वारा हेलेन (Helen) का अपहरण कर ट्रॉय (Troy) ले जाया गया है, वह असली हेलेन नहीं है, बल्कि उसके जैसे दिखने
वाली है और असली हेलेन मिश्र में है, जिसके लिए ग्रीक
और ट्रोजन (Trojan)आपस में युद्ध करते हैं। इस तरह विश्व–संस्कृति में पुरुषों का सम्मान पाने के लिए स्त्री की पवित्रता, सतीत्व और फीडेलिटी(fidelity)जरूरी है। अग्नि
परीक्षा को शुद्धिकरण की दृष्टि से भी देखा जाता है। महाभारत में द्रौपदी जब तक एक
पति से दूसरे पति के पास जाती है तो आग के माध्यम से गुजरकर अपने आप को शुद्ध कर
लेती है।
अनय दृष्टान्तों में सीता की निम्नलिखित परीक्षाओं का उल्लेख मिलता है–
विषैले साँपों से भर घड़े में हाथ डालना, मदमस्त
हथियों के सामने फेंका जाना, सिंह और व्याघ्र के वन में
त्याग किया जाना, अत्यन्त तप्त लोहे पर चलना।
सीता-त्याग
के भिन्न-भिन्न कारण- रामकथा के अधिकांश लेखकों ने प्रचलित वाल्मीकि रामायण के
उत्तरकाण्ड के अनुकरण पर सीतात्याग का वर्णन किया है। परित्याग के विभिन्न कारणों
के अनुसार ये वृतांत तीन वर्गों में विभक्त किये जा सकते हैं।
· लोकापवाद – उत्तरकाण्ड
की कथा इस प्रकार है। गर्भवती सीता किसी दिन राम के सामने तपोवन देखने की इच्छा
प्रकट करती है। उनको अगले दिन भेज देने की प्रतिज्ञा करके राम अपने मित्रों के साथ
बैठकर परिहास की कहानियाँ सुनते हैं – कथा बहुबिधा : परिहास
समन्विताः। संयोगवश राम भद्र से पूछते है – “मेरे, सीता तथा भरत आदि के विषय में लोग क्या कहते हैं?” तब
भद्र सीता के कारण हो रहे लोकापवाद और जनता के आचरण पर पड़नेवाले उसके कुप्रभाव का
उल्लेख करता है। लोग कहते हैं – हमको भी अपनी स्त्रियों का
ऐसा आचरण सहना होगा।
यह सुनकर राम लक्ष्मण को बुलाते हैं और सीता को गंगा के उस पार छोड़ आने का
आदेश देते हैं। तपोवन दिखलाने के बहाने लक्ष्मण सीता को रथ पर ले जाते हैं और
वाल्मीकि के आश्रम के समीप छोड़ देते हैं।
वाल्मीकि कथा कालिदास के रघुवंश में भी मिलती है। अंतर यह है कि इसे भद्र
मित्र न होकर गुप्तचर बताया गया है। उत्तररामचरित, कुंदमाला, दशावतारचरित आदि प्राचीन रचनाओं में इस प्रकार का वर्णन किया गया है।
उत्तररामचरित में गुप्तचर का नाम दुर्मुख है। आध्यात्म रामायण तथा आनन्द रामायण
में इसका नाम विजय माना गया है।
“चलित राम” के अनुसार दो
छद्मवेशी राक्षस राम को सीता के विरोध के लिए उकसाते है,जबकि
“असमिया लवकुशर युद्ध” में राम के एक
स्वप्न की चर्चा है।
विमलसुरीकृत पउमचरियं में सीता त्याग का विस्तृत तथा किंचित परिवर्द्धित
वर्णन किया गया है।
राम स्वयं गर्भवती सीता को वन में विभिन्न चैत्यालय दिखला रहे थे कि
राजधानी के नागरिक उनके पास आए और अभयदान पाकर उन्होंने अपने आने का कारण बताया, पहले वे साधारण जनता के दुष्ट स्वभाव का वर्णन करते हैं; जिसके निम्नलिखित अवगुण होते हैं– पवमोहित्यमई
(पापमोहितमति), परदोसगहणरउ (परदोषग्रहरणरत), सहववको (स्वभाव–कुटिल), सठ्सिलों
(शठशील), ऐसी जनता में सीता के अपवाद को छोड़कर किसी और
बात की चर्चा नहीं होती। नागरिकों का यह भाषण सुनकर राम ने लक्ष्मण के साथ परामर्श
किया, किन्तु लक्ष्मण ने सीतात्याग का विरोध किया। राम
को सीता पर संदेह हुआ। अतः उन्होंने अपने सेनापति कृतान्तवदन को बुलाकर आदेश दिया
कि जैन-मंदिर दिखलाने के बहाने सीता को गंगा के पार भयानक (निमानुष) वन में छोड़
दो। सेनापति ने ऐसा ही किया। संयोग से पुण्डरीकपुर के राजा बज्रपंध ने उस वन में सीता का विलाप सुन लिया।
वह सीता को अपने भवन में ले आया और उसके यहाँ सीता के दो पुत्रों का जन्म हुआ।
रविषेण के ‘पदमचरित’ में सीता को ग्रहण करने के दुष्परिणाम के वर्णन में परिवर्द्धन किया गया
है। समस्त प्रजा मर्यादा-रहित बताई जाती है। स्त्रियों का हरण हुआ करता है और बाद
में पुनः वे अपने-अपने घर लौट कर स्वीकृत हो जाती हैं।
हेमचन्द्रकृत योगशास्त्र में सीतात्याग के पश्चात की एक घटना का वर्णन
किया गया है। इनके अनुसार राम अपनी पत्नी की खोज में वन गए थे, किन्तु सीता का कहीं भी पता नहीं चल सका। राम ने सोचा कि सीता कहीं किसी
हिंस्र पशु द्वारा मारी गई है। अतः उन्होंने घर लौटकर सीता के श्राद्ध का आयोजन
किया।
· धोबी का वृतान्त – सीता त्याग की कथाओं का एक दूसरा
वर्ग मिलता है, जिसमें लोकापवाद का एक विशेष उदाहरण प्रस्तुत किया गया है। एक पुरुष (बाद
में यह धोबी कहा जाता है) अपनी पत्नी को, जो घर से
निकली थी; वापस लेने से इन्कार करते हुए कहता है – “मैं राम की तरह नहीं हूँ, जिन्होंने दीर्घकाल
तक दूसरे के घर में रहने के पश्चात सीता को ग्रहण किया।”
इस
वृतान्त का सर्व प्रथम वर्णन सम्भवतः आजकल गुणादय कृत वृहत्कथा में हुआ था और अब
सोमदेव-कृत कथासरित्सागर में सुरक्षित है। कथा इस प्रकार है– एक दिन अपने नगर
में गुप्त-वेश में घूमते हुए राजा ने देखा कि एक पुरुष अपनी स्त्री को हाथ से
पकड़कर अपने घर से निकाल रहा है और यह दोष दे रहा है कि तू दूसरे के घर गई थी। इस
पर वह स्त्री कहती है– राम ने सीता को राक्षस के घर रहने पर
भी नहीं छोड़ा; यह मेरा पति राम से बढ़कर है, क्योंकि यह मुझे बंधु के गृह जाने पर भी अपने घर से निकाल रहा है। यह
सुनकर राम को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने लोकापवाद के भय से गर्भवती सीता को वन में
छोड़ दिया।
भागवतपुराण
में जो वृतान्त मिलता है वह कथासरित्सागर की उपर्युक्त कथा से बहुत कुछ
मिलता-जुलता है।
जैमिनीय
अश्वमेघ तथा पदमपुरण की सीतात्याग विषयक कथाओं का मूल-स्रोत एक ही प्रतीत होता है; क्योकि दोनों
में शाब्दिक समानता के अतिरिक्त एक ही नया तत्त्व मिलता है। जिस पुरुषों ने अपनी
पत्नी को निकाला वह धोबी कहा जाता है।
आगे चल कर धोबी की यह कथा व्यापक हो गई है। तमिल रामायण का उत्तरकाण्ड, आनन्द रामायण, नर्मद्कृत गुजराती रामायण सार, रामचरितमानस के प्रक्षिप्त लवकुश-काण्ड आदि में इसका वर्णन किया गया है।
तिब्बती रामायण का वृतान्त कथासरित्सागर तथा भागवत-पुराण की कथा से विकसित प्रतीत
होता है। उसमें जनश्रुति का प्रभाव भी स्पष्ट दिखाई पड़ता है। राम किसी पुरुष को
अपनी व्यभिचारिणी पत्नी से झगड़ा करते सुनते हैं। पति कहता है– तुम अन्य स्त्रियों की तरह नहीं हो। इस पर पत्नी उत्तर देती है– तुम स्त्रियों के बारे में क्या जानते हो, सीता
को देख लो; एक लाख वर्ष तक वह दशग्रीव के साथ रही, फिर भी राम ने उसे ग्रहण कर लिया।
यह सुनकर राम को सीता के विषय में संदेह उत्पन्न होता है और वह छिपकर उस
स्त्री से मिलते हैं। स्त्रियों का स्वभाव समझाते हुए वह राम से यो कहती है–
ज्वर-पीड़ित मनुष्य जिस प्रकार शीतल सरिता का निरन्तर स्मरण करता है, ऐसे से ही काम-पीड़ित स्त्री रूपवान पुरुष का निरन्तर स्मरण करती रहती है।
जब तक उसे कोई देखता अथवा सुनता हो वह निंदनीय आचरण नहीं करती, लेकिन एकांत में बंधन से मुक्त होकर वह पर-पुरुष के साथ अपनी काम-पीड़ा
शान्त कर लेती है।
यह सुनकर राम के मन में शंका सुदृढ़ हो जाती है। वह घर जाकर सीता को कहीं
भी चले जाने का आदेश देते हैं और सीता अपने दो पुत्रों के साथ किसी आश्रम के लिए
प्रस्थान करती है।
· रावण का चित्र – पउमचरिय के अनुसार राम को सीता के चरित्र पर संदेह होने के कारण सीता के
पास रावण का चित्र होना बताया है। जैन साहित्य के टीकाकार मुनिचन्द्र सूरी के अनुसार सीता ने अपनी
ईर्ष्यालु सपत्नी की प्रेरणा से रावण के चरणों का चित्र बनाया था। सपत्नी ने राम
को यह चित्र दिखाया। इसीलिए राम ने सीता का त्याग कर दिया, राम ने उसकी बात पर ध्यान नहीं दिया तो सपत्नियों ने यह बात दासियों के
द्वारा जनता में फैला दी। बाद में राम जब गुप्त वेश धारण कर नगर के उद्यान में टहल
रहे थे, तो सीता को ग्रहण करने के कारण अपनी निन्दा
सुननी पड़ी। इस बात का गुप्तचरों ने भी समर्थन किया। लक्ष्मण ने सीता का पक्ष लिया
था। मगर राम ने कृतांत-वदन की तीर्थयात्रा के बहाने सीता को जंगल में छोड़ने
का आदेश दिया।
कृतिवास रामायण में इसी तरह का वृतान्त देखने
को मिलता है। चन्द्रावली-कृत रामायण गाथा में कैकेयी की पुत्री ‘कुकुआ’ के बहकावे में आकर सीता रावण का चित्र खींचती
है, जिसे कीकवी देवी (भरत और शत्रुघ्न की सहोदरी) उसे सोती
हुई सीता की छाती पर रख देती है और यह अभियोग लगाती है कि उन्होंने चित्र का
चुम्बन भी किया था।
हिंदेशीय के शोरीराम में यह दिखाया गया है कि रावण की पुत्री अपने पिता का
चित्र सीता की छाती पर रख देती है, जिसका वह नींद में
चुम्बन करती है। यह दृश्य देख राम सीता को कोड़ों से मारते हैं; उसके बाल काटते हैं और लक्ष्मण को बुलाकर मार डालने तथा प्रमाण स्वरूप
उसका हृदय लाने का आदेश देते हैं।
सिंहल द्वीप की रामकथा, रामकीर्ति के अनुसार
शूपर्णखा की पुत्री अदूल सीता
से रावण का चित्र खिंचवाती है। ब्रह्मचक्र की कथा में शूपर्णखा स्वयं छद्मवेश में
सीता के पास आती है। कश्मीरी रामायण में रामायण के दो भाग है, पहला “सरी राम अवतार चरितम्” तो
दूसरा “लवकुश युद्ध चरितम्।" चोल साम्राज्य में दो कवि
कम्बन और ओट्टाकोथार ने 12वीं शताब्दी में रामायण के ऊपर अपनी व्याख्या लिखी है।
तमिल साहित्य में कहा जाता है कि पूर्व रामायण कम्बन द्वारा लिखी गई और उत्तर
रामायण ओट्टाकोथार द्वारा। वाल्मीकि रामायण में इसे केवल स्ट्रीट गॉसिप माना
है। जबकि तेलगु कन्नड़ और ओड़िआ कथाओं में सीता द्वारा रावण की परछाई बनाने का वर्णन
आता है, तो कई गाथाओं में सूर्पनखा और उसकी पुत्री, मंथरा,कैकेयी, तो अन्य
स्त्रियों द्वारा सीता को रावण की तस्वीर खींचने के लिए बाध्य किया जाता है।
संस्कृत कथासरित सागर (11वीं शताब्दी) तथा बंगाली कीर्तिवास रामायण (15वीं
शताब्दी) में धोबी और उसकी पत्नी के झगड़े का संदर्भ है।
रामायण के अन्य परोक्ष कारणों में दुर्वासा मुनि का शाप, भृगु पत्नी-वध, तारा का शाप (बालीवध के बाद), उद्यान में शुकों के साथ, पूर्व जन्म में सीता
द्वारा मुनि सुदर्शन की निन्दा, सीता द्वारा
लक्ष्मण पर आक्षेप, वाल्मीकि की तपस्या द्वारा लक्ष्मी
के पिता बनने के वरदान की कथा, जैसे अनेकानेक कथानक
देखने को मिलते हैं।
तुलसीदास की गीतावली, अध्यात्म रामायण, आनंद रामायण आदि में राम के चरित्र के आदर्श को सुरक्षित रखने के उद्देश्य
से अनेक अर्वाचीन राम कथाओं
में सीता त्याग के वृतान्त को एक अन्य रूप देकर अवास्तविक बनाने का प्रयास किया
गया है। गीतावली के अनुसार दशरथ अपनी आयु के पूर्ण होने से पहले ही स्वर्गवासी हो
गए थे और राम को उनकी शेष आयु मिली थी। पिता की आयु सीता के साथ भोगना अनुचित
समझकर राम ने अपनी आयु के समाप्त होने पर सीता का निर्वासन किया।
अर्वाचीन रामकथा साहित्य में काल-क्रम के अनुसार सीता-त्याग की कथाओं के
विकास की पुष्टि होती है।धोबी द्वारा लोकापवाद, रावण के
चित्र और अंत में सीता की एक रजस्तमोमयी छाया मात्र का हरण होने तथा सत्वगुण से
अदृश्य रूप से राम के वामांग में निवास करना।
रामायण के अनुसार सीता अपने आपको साधारण स्त्री मानती है और अपने इस जन्म
को दुःखों का कारण पूर्व जन्म के किए हुए पाप को समझती है। राक्षसों के प्रति राम
की हिंसात्मक प्रवृति देखकर राम के परलोक की चिन्ता करती है और रावण उनसे
अनुरोध करता है कि वह राम जैसे साधारण मनुष्य को छोड़ दे तो वह उत्तर नहीं देती है।
राम साधारण मनुष्य नहीं है। युद्ध के समय भी वह राम को अमर नहीं समझती है। रामकथा
की लोकप्रियता का एक कारण बौद्ध और जैन साहित्य से मिलता है। बौद्ध ने राम को
बोधिसत्व मानकर लोकप्रियता और आकर्षकता का साक्ष्य दिया है और जैनियों ने वाल्मीकि
की रचनाओं को मिथ्या कहकर राम को नए रूपों में अपनाने का प्रयत्न किया है। कृपा
निवास, मधुराचार्य (रसिक संप्रदाय के आचार्य) के अनुसार
न तो वास्तव में सीता का हरण हुआ और न ही स्वयं ब्रह्म राम ने एक तुच्छ राक्षस के
वध के लिए धनुष बाण उठाया। वनयात्रा के समय राम, लक्ष्मण
और सीता चित्रकूट से आगे तक नहीं गए।
तत्वसंग्रह रामायण के अनुसार माया सीता का वृतांत सामने आता है, जिसके अनुसार वास्तविक सीता राम के वक्ष स्थल में छुप जाती है और शतानन
रावण का वध खुद सीता ही करती है।
कथासरितसागर में राम और सीता का मिलन दिखाकर रामकथा का सुखांत किया है।
असुर और राक्षस अधिकांश एक दूसरे के लिए प्रयुक्त होते है, मगर दोनों में अंतर है। असुर कश्यप के वंशज थे, जो
जमीन पर रहते थे और देवताओं से लड़ाई करते थे। जबकि राक्षस पुलस्त्य की संतान थे, जो जंगलों में रहते थे और आदमियों से लड़ाई करते थे। वास्तुविदों के अनुसार
रावण को दक्षिण दिशा(यम की दिशा) तथा कुबेर को उत्तर दिशा (स्थायित्व / धन संग्रह)
का प्रतीक माना है।
कुछ विद्वानों के अनुसार धनुष तोड़ने का अर्थ अनासक्ति से लिया जाता है।
शायद सीता की आसक्ति से मुक्त होने के लिए राम को वनवास जाना पड़ा, जो एक राजा के लिए अनिवार्य शर्त थी। वैदिक विचारों के अनुसार मनुष्य समाज
को चार अवस्थाओं में गुजरना पड़ता है। व्यतिक्रम क्रेता (4), त्रेता (3), द्वापर (2), कली (1) और उसके बाद प्रलय (0) और उसके बाद 4, 3, 2, 1... हर समाज आदर्शवादिता से शुरू होता है
और धीरे-धीरे करके अपने समापन को प्राप्त करता है। हर युग की समाप्ति एक अवतार से
होती है, जैसे क्रेता में परशुराम, त्रेता में राम, द्वापर में कृष्ण और कलि में
कल्की। रामबाण का अर्थ अपने उद्देश्य का अचूक निशाना है।
आज भी महाकाव्यों में यह सवाल हमेशा बना रहता है कि सीता राम का अनुकरण
क्यों कर रही थी। वह इसे अपना कर्तव्य समझती थी, अथवा
वह राम को अत्यधिक प्यार करती थी। क्या सीता का यह निर्णय सामाजिक नियमों पर
आधारित था, अथवा भावना केंद्रित? राम जब नियमों की बात करते है तो सीता भावनाओं की तरफ झुक कर संतुलित करती
है। सीता की परंपरागत कथाओं में आज्ञाकारी पत्नी होने के विपरीत वाल्मीकि रामायण
में उसे अपने मस्तिष्क का प्रयोग करने वाली सजग नारी के रूप में चित्रित किया गया
है।वह राम के पौरुष को ललकारती है।जिसके कारण वह उन्हें अपने साथ जंगल में नहीं ले
जाना चाहते। कई संस्करणों में अभी तक यह भी गुत्थी बनी हुई है कि सीता ने राम के
साथ शाही परिधानों में वन गमन किया था अथवा वल्कल पहन कर।
भारत में रामायण की घटनाओं के अनुरूप महानगरों को विभाजित किया गया है।
उदाहरण के तौर पर वाराणसी में अयोध्या (राम नगर) और लंका के कुछ हिस्से हैं –
जो गंगा नदी के आमने-सामने वाले तट पर हैं। इसी तरह चित्रकूट (जहाँ
राम का भरत से मिलाप होता है) तथा पंचवटी (जहाँ से सीता का अपहरण होता है) आदि
स्थान गंगा के आस-पास ही हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार रामायण की घटनाओं का
विस्तार मध्य भारत से आगे नहीं जा सका, मगर तीर्थों की
कहानियाँ और रामायण के स्थानों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हुए इसका विस्तार
प्रायदीप तथा इससे आगे श्रीलंका तक माना जाने लगा। जहाँ राम के पाँवों के निशान
तथा अपने हाथों से ही स्थापित किए गए शिव मंदिर के अवशेष नजर आते हैं।
भास द्वारा रचित ‘प्रतिमा नाटक’ के अनुसार राम की अपने पिता की अंत्येष्टि कर्म न करने की निराशा के अवसर
का फायदा उठाते हुए, रावण ने अंत्येष्टी नियमों में
पारंगत होने का बहाना बनाकर राम को अपने पिता की आत्मा की शांति के लिए हिमालय में
पाए जाने वाले सोने के हिरण समर्पित करने की सलाह दी। इस वजह से सीता कुटिया छोड़कर
जा सके और वह सीता का अपहरण कर सके। गया में पूर्वजों की आत्मा की शांति के लिए आज
भी हिन्दू लोग श्राद्ध करते हैं।
अधिकांश रामकथाओं में राम को रावण के अत्याचार से दुनिया को बचाने के लिए
विष्णु के अवतार के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। साहित्यिक दृष्टि से दक्षिण
भारत में राम की यात्रा का अर्थ औपनिवेशवाद तथा अग्नि-पूजक, वैदिक आर्यों के धीरे-धीरे विस्तार होने की दिशाओं में संकेत है।
प्रतीकात्मक रूप में जंगल का अर्थ अपालतू, डरपोक और
इधर-उधर भटकने वाले मन से लिया जाता है। उसके पश्चात राम और साधुओं के पहुँचने का
अर्थ मानवीय शक्तियों के उजागरण से लिया जाता है। कुछ लोग रावण को रक्ष संस्कृति
के प्रवर्तक के रूप में मानते है। जिसने ऋषि संस्कृति का विरोध किया। संस्कृति में
ऐसा क्या था, जिसका स्वागत और आदान-प्रदान नहीं हुआ; दोनों संस्कृतियों में आपसी टकराव के क्या कारण थे? क्या
दोनों संस्कृतियाँ एक-दूसरे से स्वतन्त्र रह सकती थी अथवा उन्हें एक-दूसरे को
प्रभावित करते हुए बदला जाना चाहिए था। वाल्मीकि ने रावण के पिता ऋषि तथा माता
राक्षस होने के कारण इस सवाल पर बहुत ज्यादा विचार किया। राक्षसों का वर्णन
अस्पष्ट है, उन्हें उग्र हथियार लिए हुए, बड़ी-बड़ी आँखों वाले, बड़े-बड़े नाखूनों वाले पंजे
तथा खून से सने हुए दिखाया जाता है। कभी-कभी उन्हें बहरूपिया, तो कभी–कभी उन्हें सुंदर, संवेदनशील और सभ्य दिखाया गया है। राक्षसों को डरावने और दैत्य के रूप में
दिखने के पीछे मुख्य उद्देश्य उन्हें अमानवीय बताकर उनकी हत्या करने के कारणों को
न्याय-संगत सिद्ध करना है। यह ऐसा ही है कि सभ्य देश अपने युद्ध के कारणों को उचित
ठहराते हैं। मानवीय मस्तिष्क में निहित जन्तु-पिपासा कभी–कभी
उसके चरित्र पर हावी हो जाती है, उसे सुरक्षित स्थान
प्रदान करना भी ऐसा ही है। राक्षस अगर पालतू नहीं है या उन्हें छोड़ दिया गया है, वे भी हमारे ऊपर प्रभुत्व जमाकर हमें समाप्त कर देंगे। इसीलिए उनका व्यस्त
रहना अत्यंत ही अनिवार्य है।
भारत में राम-लक्ष्मण-सीता की गुफाएँ देखने को मिलती है। कई जगह तीनों
गुफाएँ अलग-अलग है। अर्थ यह लगाया जाता है कि साथ रहने के बावजूद भी वे लोग
अलग-अलग रहते थे। विभिन्न सूत्रों का अध्ययन करने से तरह-तरह की बातें सामने आती
है कि किस तरह घुमक्कड़ बंजारा जाति एक जगह इकट्ठी होकर खेती-बाड़ी का काम करने लगी, किस तरह जंगल में रहने वाली जतियों ने गाँव और नगरों का निर्माण किया, किस तरह अग्नि-पूजक परम्पराएँ मंदिर की कथात्मक परम्पराओं में तब्दील हो
गई? अमरता और परिवर्तन को स्वीकार करने के द्वन्द्व और
अस्थायित्व में किस तरह मूल वैदिक अवस्थाएँ बरकरार रही। शायद इन्हीं आस्थाओं ने
कर्म, काम, माया और धर्म के
विचारों को जन्म दिया।
अंत
में यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है कि डॉ नंदिनी साहू का ‘सीता’ महाकाव्य एक अनुपम कालजयी कृति है, जो आधुनिक पाठक के मन में सीता के साधारणीकरण से नारी-अस्मिता के
अनेकानेक प्रश्न पैदा करते है और कवयित्री अपने गांधीवादी दृष्टिकोण से सीता के
ऊपर सीता-प्रथा और दहेज के कलंक को एक सिरे से खारिज करती है। साथ ही साथ, वह पर्यावरण-सुरक्षा के मुद्दे को उठाकर सीता-मिथक के माध्यम से जैव और
परिवेश मैत्री संदेश की आधुनिक युग में आवश्यकता पर प्रकाश डालती है। मुझे आशा ही
नहीं वरन पूर्ण विश्वास है कि डॉ नंदिनी साहू के इस कालजयी महाकाव्य की हिन्दी जगत
में भरपूर स्वागत होगा और नारी-अस्मिता के नए विमर्श को जन्म देगा।
इन्हीं
आशाओं के साथ ...
-दिनेश
कुमार माली