XXII
Long twelve yours, my Lord had spent in his
palace, sans Sita, dedicated to his duty
Now the time was ripe for the Asvumedha rite ordained.
He deliberated with his mothers, brothers, friends –
like Hanuman, Sugreeva, Vihhishana and the other seers
like Vashishta, Kasyapa, Javali arid Vamadeve, the sages.
The Black Horse was let loose , and Lakshmana
accompanied by the selected priests followed the horse.
Bharat was in-chat ge of the guests from far and wide.
Shatrughna distributed gifts to the poor and needy
there was joy everywhere, all wishes fulfilled.
Poor,widows, orphans, disabled, beggars, all cherished.
Yajnamandapa, the place of Sacrifice, was the Naimisha woodlands.
Muni Valmiki, too, was invited with his disciples.
But destiny had something else in her stores.
Lava and Kusha, in the jumble, caught hold of the Black horse.
They were keen on making it their playmate.
Oblivious, unaware of the kingdom's security, kindred and friends.
Lakshmana and Hanuman had a massive war with the twins.
But adamant were they and defeated them.
Their warfare-technique and power astonished one and all.
Rama could not hope that the twelve-year olds
could defeat Nonunion and Lakshrnana both!
He reached the spot and saw the two peerless twins.
Muni Valmiki took over the circumstances and
asked Lava and Kusha to join the chorus of chants.
He ordered his favorite disciples Lava and Kusha
to recite the song of Rama that they had learnt.
Lava and Kusha recited flawlessly the greatest epic.
The Brahmins, princes, kings, queens, and the subjects astonished.
The magical charm of the twin minstrels captivated Rama"s heart.
Their angelic faces mesmerized his soul agonized.
Did they look like the younger versions of Raghupati?
Rama ordered numerous gold coins to be flooded
on the young minstrels as token of appreciation.
"No my Lord! We are children of the forest;
we live in the hermitage, Maharshi Valmiki is
our mentor. We don't need any affluence.
This immortal epic song 'Ramayanal was penned by him.
With twenty-four thousand verses and five hundred
cantos in the form of six books, the six Kandas.
The seventh Kanda is en route from his pen."
Eager was your heart to know the heritage
of the two phenomenal, prodigious boys, who are they??
Muni Valmiki told you of their lineage.
You were surprised, grazed, bewildered, oh! What a life!
Was it a derisible expenditure of ;tears or a mystic fulfillment?
No more, no more of it, you understood, and a word for me sent.
Queen mothers, brothers, their wives, your subjects,
kings, monarchs, vanaaras, rakshashas,
in the congregation of all, I was amenably summoned.
I reached the place, folded hands, with my
foster father Maharshi Valmiki beside.
It was a revelation to my sons of their ancestry.
Sita, Janaki,Vaidehi, this woman who was
their only parent, their first teacher, their esteemed guru,
was the deserted wife of Rama, the queen of Ayodhya!
My old lacerations were unwrapped, tears rolled down.
The peace and persistence I had imbibed
all these years were losing on me, getting me sicken.
Breaking the parapets of silence and distance
I looked at my love, Raghupati, my heart did pierce.
With gestures did I wish my mothers and sisters.
I could perceive their choked emotions and tears
the whole of Ayodhya was flabbergasted
to see tapaswini Sita and her twins.
Except Raghuveer whose expressionless, nonchalant eyes
slayed me once more, gave me a thousand deaths.
Lakshmana, Hanuman, Bharat, Shatrughna were emotion drenched,
Lord Rama! Your loyalty to your subjects
has been my only challenger. In the Asvamedha
Yajna, you placed the idol of a golden Sita beside you to epitomize me.
Thus, there was no other queen and you are a great king.
But have you ever thought? How many
lesser mortals had to be crushed in their lifetime so that
you could turn into 'great'? Your desire that
you should never be gotten doing any wrong,
your righteousness, made me and my children writhe.
Your desire for perfection forfeited me.Your godliness made
my life less than that of a common woman. My salad days,
my green eons are past, my children all grown up now.
What's there in your store for us now?
Rest assured that you'd be remembered as the king who put duty
before his desires. Then, what's the command for me now?
XXII
दीर्घ बारह साल, मेरे प्रभु ने बिताए अपने राज-दरबार,
सीता के बगैर, निष्पादित किए अपने राजकीय-कारोबार
अब समय आया, सम्पन्न करने को अश्वमेघ-संस्कार।
राम ने किया विवेचन,अपनी माताओं, भाइयों, मित्रगण
जैसे हनुमान, सुग्रीव, विभीषण
और वशिष्ठ, कश्यप, जवाली,वामदेव ऋषिगण ।
काला घोड़ा छोड़ दिया गया आगे-आगे
पीछे-पीछे जा रहे लक्ष्मण पुजारियों के संग
भरत कर रहे दूर-दूर से आए मेहमानों का आदर-सत्कार ।
शत्रुघ्न ने निर्धनों और जरूरतमंदों को बांटे उपहार
हर जगह खुशी का माहौल, सभी की इच्छाएं हुईं पूरी
गरीब, विधवा, अनाथ, विकलांग, भिखारी, सभी करने लगे जय-जयकार।
नैमिषारण्य बना यज्ञमंडप का स्थान
मुनि वाल्मीकि को भी शिष्यों समेत मिला आमंत्रण
लेकिन नियति का था कुछ और ही अनुमोदन ।
लव-कुश ने काले घोड़े को पकड़ा उस वन
बनाना चाहते थे वे उसे अपना मेहमान
चक्रवर्ती अश्वमेध की शर्तों से अनजान ।
छिड़ा लक्ष्मण-हनुमान और लव-कुश के बीच युद्ध महियान
डटे रहे जुड़वां भाई, हरा दिया उन्हें, बिना किसी अनुमान
उनकी युद्ध-तकनीक और शक्ति से चकित हुए भगवान ।
राम को विश्वास नहीं हुआ अपने राजीव नयन
बारह साल के दो बच्चे हरा सकते हैं हनुमान-लक्ष्मण ?
उन अतुल्य बच्चों को देखने पहुंचे, भगवान स्वयं उस स्थान।
मुनि वाल्मीकि ने परिस्थितियों को संभाला तत्क्षण
लव-कुश को किया शामिल वैदिक-मंत्रों के सहगान
कहा उनसे सुनाने को, अपनी पसंदीदा रामायण का गान ।
लव-कुश ने सुमधुर गाया वह महाकाव्य महान
चकित हुए ब्राह्मण,राजकुमार,राजा,रानी और प्रजाजन
राम का दिल हुआ मोहित,लव-कुश के जादुई आकर्षण ।
उनके दिव्य-चेहरे देख, राम की आत्मा हुई प्रसन्न
क्या पुनरावृत्ति नहीं हो रही रघुपति का बचपन ?
उनके उत्साह-वर्धन के लिए राम ने किया स्वर्ण-मुद्रा-दान ।
"नहीं भगवान! हम जंगल के सुमन ;
हम रहते आश्रम, महर्षि वाल्मीकि हमारे गुरुजन
हमें नहीं आवश्यकता किसी धन ।
हमारे गुरु इस अमर महाकाव्य 'रामायण' के सर्जनहार
चौबीस हजार श्लोक और पाँच सौ सर्ग के छः कांड,
सातवां कांड अभी चल रहा उनकी कलम की गार।”
जानने को उत्सुक तुम्हारा हृदय,उनका उत्तराधिकार
दो अभूतपूर्व, विलक्षण लड़के, कौन हैं वे आखिर ?
मुनि वाल्मीकि ने तुम्हें बताई उनकी वंश-परंपरा ।
हतप्रभ हुए राम, ओह! क्या है जीवन !
क्या यह थी मेरे सालों की तपस्या या दैविक वरदान ?
नहीं, इससे अधिक नहीं, समझ पाए तुम, भेजा मुझे निमंत्रण।
राजमाता, भाई, उनकी पत्नियाँ, तुम्हारी प्रजा,
राजा, सम्राट, वानर, राक्षस-सभी की मण्डली में,
मुझे आने का मिला आमंत्रण ।
मैं पहुंची करबद्ध उस स्थान
पालक पिता महर्षि वाल्मीकि के साथ
पुत्रों के सामने मेरा हुआ रहस्योद्घाटन ।
सीता, जानकी, वैदेही- वह नारी थी उनकी माता-पिता,
उनकी पहली शिक्षिका, उनकी सम्मानित गुरु,
अयोध्या की रानी! राम की परित्यक्ता ।
मेरे पुराने घाव खुल गए, आँखें हुई नम
मैंने फहराया शांति और दृढ़ता का परचम
खोए हुए मेरे साल,उखाड़ रहे थे मेरे जख्म ।
चुप्पी तोड़कर, दूरी मिटाकर किए मैंने दर्शन
रघुपति को कर हृदय से प्रेमपूर्वक नमन
इशारों से अपनी माताओं और बहनों को निवेदन ।
उनकी घुटी हुई भावनाओं और आंसुओं का मुझे था अनुमान
पूरा अयोध्या उमड़ पड़ा करने जनगान,
तपस्विनी सीता और उनके जुड़वा बच्चों के दर्शन ।
रघुवीर के अभिव्यक्तिहीन, उदासीन नयन
गिरे जब मेरे बदन, लगा मुझे जैसे एक हजार मरण
अश्रुपूरित थे लक्ष्मण, हनुमान, भरत, शत्रुघ्न।
भगवान राम! प्रजा के प्रति तुम्हारी निष्ठा मेरे लिए बनी चुनौती
अश्वमेध यज्ञ में वाम में बैठाकर स्वर्ण सीता की मूर्ति
क्या कोई दूसरी रानी नहीं मिली ? क्यों तुम बनना चाहते थे चक्रवर्ती ?
लेकिन क्या तुमने कभी सोचा है?
अपने जीवनकाल में ‘महान’ बनने के लिए कितनों को कुचला है ?
क्या लोकप्रियता की तुम्हारी इच्छा और धार्मिकता ने मुझे और मेरे बच्चों को बर्बाद नहीं कर दिया ?
तुम्हारे पूर्णता की इच्छा ने मुझे जब्त कर दिया।
तुम्हारे ईश्वरत्व ने साधारण महिला से भी मुझे बदत्तर बना दिया।
मेरे जीवन के सुनहरे दिन अब खत्म हो गए,मेरे बच्चे अब बड़े हो गए।
तुम्हारे पास अब हमारे लिए क्या बचा है?
निश्चिंत रहें, अपनी इच्छाओं की तिलांजलि देने वाले कर्तव्य-परायण राजा के रूप में याद किए जाओगे ।
फिर, अब बताएं, मेरे लिए क्या आज्ञा है?
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