VII
Resembling a spillway, a channel from the bow, the Pushpaka
flew at the hustle of gust seething the Southern sea,
the sea-creatures gaping and viewing is with awe.
Ravana was heedless to my reprimanding
and laments, fanatical with his proud self-esteem.
I saw a few Vanaras throng together, and plummeted
towards them my jewels anticipating you would
acquire it from them. Ravana, the wisest
scholar as they call him, where
did he fleece his knowledge when my
tears pattered on the sea, merging with
the Bay of Bengal, clumsier and molten ?
His laugh did tippet my hope's optimistic hark
clouded my unblemished sky and the mystic pleasant-pain
in your adoration, sending off the inception of dark.
Why couldn't you come at the instant, oh Rama!
Oh Almighty! You could have very well emanated to
sojourn the inevitable, and cover me
with the pinafore of your care.
Why weren't you there when evil beguiled
Me with threats, scars and fear?
My departure from Rama was but
the parting of the inherent soul from the absolute being.
Sita, your alter ego, was two brief seasons for you.
The metaphor of our love is taken as two-fold
of divinity and humanity—the body's
absorption with the soul. Did you ever
caution me of this future, mercuric, when
I had the feminine longing for the golden deer?
Your distress over me is in semblance
with god's concern for His devotee ,who
needs redemption from the cycle of birth
and death. You, God incarnate Rama,
were now in search of your true aficionado
Sita, who was humanizing herself in the
art of loneliness, solitude, and love of
the flora and fauna, of ecology pure. Yes, I learnt
the art of depersonalizing, of detaching
myself from myself, from my sorrows
and contentment. I was getting the urge
to cherish a worship with colour and charm
and merge with the dew drops on the flowers
who are unpolluted archetypes of transparent joy, and have
a tranquil, restful heart as the clear waters
in the brooks and the weeping, mourning rivers.
In the storm of my tears, oh Lord,
why weren't you there? Civility says, a man
is her wife's protector and provider.
You were inconsolable, I am sure, my dear,
It's all inscribed in the Kishkindha Kanda
of Valmiki's Ramayana. Lakshmana
followed his grief-stricken brother, and
both of you searched for me in the Kadamba
vana and in pools, hills, rivers; near
the seething fauna of deer, elephant,
bear, tiger and I was nowhere to be seen.
You cried with the Lake of Lotuses, the
Pampa, paralleling her beauty with mine.
In your fringe you interrogated the
sun, the wind and the sea waves, peripatetic
spontaneously as they did, if they could give you
any update. You and were now one with Mother Nature,
Rama beside the Pampa and Sita in the Asoka-vana.
In intense silence you and brother Lakshmana
arched towards the South. You caught sight
Of the footprints of a punitive skirmish between
me and the rakshasa you were susceptible
and vowed to rescind yourself if Site is deceased.
You chanced upon the colossal body of
the weakened, dying Jatayu, who informed you my predicament
just before taking his last breath at your feet. You were perturbed blamed yourself for loss of father, wife, and now father's friend.
Both of you swore to destroy evil, in the
form of Ravana, and release Sita. Tell me, oh
Lord, why do we subject a woman,
at every age, as a means to an end? To kill
Ravana, to wipe out evil, was it indispensable to make Sita a
victim? To fight the Mahabharata war, was
it required to disrobe Draupadi in the
Dice Hall of Hastinapura? To make a society
of successful men, who are the so-called future supports
to ageing parents, is it needed to conceive
a female fetus, and kill her unborn?
To boost someone's male-ego, violating a woman is a must?
Past, present and the future are a profane snare, a mesh
dexterously woven, gossamers of relations
for a woman are intricate, there is no escape.
This I have learnt from you my Lord; but now
that I was thrown open to the world, alone
and unprotected, Sita the woman, has ventured to voice.
VII
धनुषाकार नदी-नालों को पार करता हुआ पुष्पक विमान
कहीं खो गया दक्षिणी समुद्र के गुबार,
समुद्री जीव-जंतु हमारी तरफ देखने लगे हीनमान ।
अहंकारी रावण का मेरे रुदन-क्रंदन से क्या लेना-देना
मैंने नीचे वानर-दल देखा, और
उनकी तरफ फेंके अपने गहना ।
बुद्धिमान रावण का कहाँ चला गया ज्ञान
जब मेरे आँसू समुद्र में गिरकर
हो गए बंगाल की खाड़ी में विलीन ?
उसका अट्टहास मेरे आशा-उपवन,मेरे निर्मल गगन
तुम्हारे आराधन के फकीरी मीठे-दर्द पर
छा गया काला बादल बन ।
तुम तत्काल क्यों नहीं आए, हे राम!
हे सर्वशक्तिमान! तुम रोक सकते थे इस अपरिहार्य को
और ले सकते थे मुझे अपने धाम ।
तुम वहाँ क्यों नहीं थे,
जब दुष्ट मुझे धमका रहा था
डरा रहा था ?
राम से मुझे दूर होना था भाग्यवश
पर पूर्ण आत्मा से निहित आत्मा की विदाई ?
सीता, तुम्हारा अपररूप, तुम्हारा ही अंश।
हमारा प्रेम-रूपक हो जाता दुगुना
देवत्व और मानवता का –
शरीर का आत्मा के साथ मिलना ।
तुमने कभी चेताया मुझे जब
मेरे भीतर स्वर्ण-मृग की लालसा धधक रही थी?
तुम्हें मेरी चिंता होनी चाहिए थी तब
जैसे भगवान को होती है अपने भक्त की,
जो जन्म-मरण के चक्र से मुक्त होना चाहते है
तुम्हें तलाश थी अपने सच्चे प्रशंसक सीता की,
अपने आप को मानवीय बना रही थी मिथिला
सीखकर अकेलेपन, एकांत, पारिस्थतिकी और
वनस्पतियों से विशुद्ध प्रेम की कला।
हां, मैंने सीखी वह लीला
अपने सुख-दुख से ऊपर उठकर
खुद से खुद को अलग करने की कला।
मुझे कर रही थी प्रार्थना
जैसे रंग-बिरंगे, आकर्षक फूलों पर
ओस-बूंदों की आराधना ।
जो देता है हर्ष निर्मल
एक स्वच्छ शांत हृदय
जैसे शोक नदियों का साफ जल ।
मेरे आँसुओं की आंधी में, हे भगवान, कहाँ थे तुम ?
सभ्य समाज में पति ही अपनी
पत्नी का रक्षक, प्रदाता परम।
तुम गा रहे थे शोक-गीत ,
मुझे यकीन है, मेरे प्रियतम,
वाल्मीकि-रामायण के किष्किंधा कांड में उल्लेखित ।
लक्ष्मण ने दुखी भाई का किया अनुकरण
दोनों ने खोजा मुझे खोजा कदंब वन
पहाड़ियों, नदियों से परिपूर्ण स्थान
दिखाई दिए हिरण, बाघ,हाथी, भालू, चील
मगर मैं कहीं पर नहीं
तुम रोए पंपा झील।
मेरी सुंदरता की उससे की तुलन
और की पूछताछ
समुद्री लहर,सूरज, पवन,
तुम्हें हो सके अद्यतन ज्ञान
तुम और मैं प्रकृति की गोद ,
तुम पम्पा-झील तो मैं अशोक वन ।
नीरवता में तुम और लक्ष्मण बढ़े दक्षिण ,
तुमने देखे मेरे और राक्षस के बीच
झड़प वाली जगह पर बने पैरों के निशान ।
तुम थे अतिसंवेदनशील
तुमने सोचा, अगर सीता को कुछ हो गया तो
कैसे बचाऊंगा अपना कुल ।
कमजोर, मरणासन्न जटायु ने बताए मेरे हाल
अपनी आखिरी सांस लेने से पहले,
मानने लगे जैसे हुआ खुद के कारण पत्नी का अपहरण,पिता और पिता के दोस्त का काल ।
तुम दोनों ने शपथ ली समूल उखाड़ने को रावण,
करने सीता को मुक्त-बंधन। मुझे बताओ, ओह
भगवान, हम नारी क्यों प्रस्तुत होती हैं, हर युग में, बन अंत का साधन ?
रावण की हत्या , बुराई का सफाया ,
इस हेतु सीता को शिकार बनाना था अपरिहार्य ?
महाभारत युद्ध में द्रौपदी हुई निर्वस्त्र, हस्तिनापुर के द्यूत-निलय ?
सफल पुरुषों के समाज के निर्णायक
वृद्ध माता-पिता के तथाकथित भविष्य की सुरक्षा के लिए,
क्या मादा गर्भधारण को अजन्मा मार देना आवश्यक ?
तुष्ट करना हो किसी का पुरुष-अहंकार
ये कैसे संस्कार ,
किसी महिला को सूली पर चढ़ाए निराधार ?
अतीत, वर्तमान और भविष्य का अपवित्र जाल,
बारीकी से बुना हुआ,
निभाना नारी के लिए अत्यंत जटिल-जंजाल।
मेरे प्रभु यह मैंने तुमसे सीखी शिक्षा;
पर अब मैं दुनिया के सामने खुली फेंकी,
अकेली,असुरक्षित सीता-जिसने आवाज उठाने की दी दीक्षा ।
No comments:
Post a Comment