Call her what you may-Sita, janaki,
Vaidehi, Ramaa-she is Woman.
She is every woman, the propagated, interpolated role model.
The woman who adopted a self-imposed exile;
the woman whom time and again patriarchy finds safe
to evict in her emancipated consciousness.
But she has never been reticent. Never given up. Come back she has from the segments of Mother Earth, to live in me, in you,
in the mass consciousness of the universe.
She is there since the commencement of a timeless history
since the unwritten agenda of the society
prevails to define me, you or her in altered
forms and repudiations. Sita dwells in
the Sitapurs, Rampurs, Udaipurs of India ;
she is on the Internet, in T.V. soaps,
in households, streets, call centers, universities,
in temples and churches, in Ceylon, in the back waters of Kerala, in your concealed perception, and in the Indian Constitution.
She is the erstwhile woman Prime Minister
of India, and the woman President; t
he multi-tasking working mother and the
homemaker; the gang-raped girl
in the Delhi bus at night, and the
battered baby girl in the AIIMS trauma center.
She is in the hot,-helpless tears of the poor, in the
hidden fears ; yet again, she is the confident,
adamant, stalwart new woman, resilient as the Pegasus.
Sita—SatiSita-she is not just the hypothetical or the
historical substance of academics. She is truly animated to this
living, present living; she is pertinent.
She is the past and the present, she is the comprehensive
social, political or religious attitude
of the progressive Indian woman.
The one who suffers and succeeds, and never regresses.
I am the new woman. Can I be construed correctly without
your understanding of Sita ? Can your collective faith in me get
pronounced without deconstructing Sita?
Can your sympathy, empathy, inquisitiveness
about the fractured identities of us,
the women of the world, of this
earth and hearth, be lessened
without deliberating the anguished formal portrait
of Sita ?Sita, the woman who translates the
communal and the cloistered cosmoses in the
society, controls remotely the kingship
and the exile of Rama, creates the realization
of the ethics of banishment, liability,
assertion, loyalty and denunciation. Hence this story
in verse. My delicate anecdote of the adikavya by
Sage Valmiki. The ultimate classical
version of The Ramayana, the epic poem,
that was written by Valmiki after viewing the
kraunch bird shedding tears over the
body of his mate, hunted by a predator, the cruel
sculptor of destiny. Can you logically fathom
the values of compassion, the pain of
lost-love without construing Sitais seventh
segment, the Uttara Kanda ? Sita, the
single-parent, valiantly bears and rears her sons
Lava-Kusha. They are 'Sita-putrat,
as christened by Valmiki , not 'Rama-putra'.
Can you do justice to the anguish of a
mother, loyal, elemental, integral to
her children's lives without approving the
fate of Sita ? The story of many a dedicated parents, the tales of
single mothers, re-telling the tale of Sita -can you comprehend?
Hence this poem. Today' Kalidasa's Raghuvansha
and Bhavabhuti's Uttara Ramayana on Sita's life aren't prolific
for me. Through poetry, I celebrate womanhood;
the living and the loving spirit of Sita in
me asserts herself in my heroic verse, through my
story of kinship, affection, loyalty, sacrifice and the social codes.
I
भले ही,कहो उसे- सीता, जानकी,वैदेही, रामा
मगर रहेगी वह हमेशा ही वामा
हर महिला में बन आदर्श का जामा ।
जिसने चयन किया स्व-निर्वासन;
जिसका बार-बार पितृसत्ता ने किया दमन
ताकि हो उसकी उन्मुक्त-चेतना का पतन ।
मगर वह कहाँ रहती चुप, क्यों मानती हार ?
वापस आई, वह धरती के उदर से, हमारे भीतर ,
ब्रह्मांड की सामूहिक चेतना के अंदर ।
सृष्टि के आरंभ से वह उपस्थित
समाज के बदले रूपों को करती परिभाषित
अलग-अलग रूपों, प्रतिकृतियों में अलिखित ।
सीता रहती भारत के सीतापुर, रामपुर, उदयपुर;
इंटरनेट, टीवी-साबुन,सड़क, कॉल सेंटर, विश्वविद्यालय,घर,मंदिर,
चर्च, श्रीलंका, केरल-समुद्र-तट, तुम्हारी ध्यान-धारणा और भारतीय संविधान के पन्नों पर ।
वह है भारत की महिला प्रधान मंत्री,महिला राष्ट्रपति,कामकाजी माता
वह है गृहिणी; रात में दिल्ली बस में गैंगरेप की शिकार निर्भया
वह है एम्स के ट्रॉमा सेंटर में अवसाद-ग्रस्त जामाता ।
वह है गरीबों के गर्म, असहाय आँसुओं में छिपा हुआ डर;
फिर भी आश्वस्त, अडिग, आत्म-निर्भर
वह है तेजस्वी नई महिला, पेगासस का लचीला आधार ।
वह नहीं, केवल काल्पनिक या शिक्षाविदों तक सीमित
वह वास्तव में है एनिमेटेड और जीवित,
वह है अनित्य-अनंत ।
वह है सर्वव्यापी, वर्तमान और अतीत
चाहे हो, सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक रीत
प्रगतिशील भारतीय महिला में सदैव उपस्थित ।
दुखों को झेलकर भी पीछे नहीं देखने का दूसरा नाम है सीता
मैं हूँ एक नई औरत सुविचारिता
कैसे मुझे समझ पाओगे, बिना समझे सीता ?
कर पाओगे मुझ पर सामूहिक विश्वास, बिना किए सीता का खंडन ?
बचेगा तुम्हारे भीतर सहानुभूति, स्वानुभूति, जिज्ञासा का दामन
लेकर हमारी खंडित पहचान ?
कर पाओगे इस दुनिया की महिलाओं का चित्रांकन,
समझ पाओगे कामकाजी या चूल्हा संभालने वाली औरतों का मन,
बिना समझे सुविचारित औपचारिक सीता का चरित्र-चित्रण ?
सीता है सांप्रदायिक और समाज के बंद गवाक्षों की अनुवादक,
राजत्व की सुदूर नियंत्रक,
निर्वासन की नैतिकता, दायित्व, समर्पण और त्याग-भावना का प्रतीक।
इसलिए लिख रही मैं श्लोक बद्ध यह ‘सीता-महाकाव्य’
पढ़कर ऋषि वाल्मीकि का शास्त्रीय ‘रामायण’ अद्वितीय
यह अनूठा संस्करण होगा सुश्रव्य और दिव्य।
वाल्मीकि ने देखा क्रोंच पक्षी मर्माहत
हुआ वह एक शिकारी द्वारा आहत,
विधाता के क्रूर खेल से उनका मन हुआ विचलित।
क्या समझ पाओगे किसी के जीवन का आधार
मन में व्याप्त किसी की करुणा और डर
बिना पढे ‘उत्तर-कांड’ में सीता का खोया-प्यार ?
सीता ने अकेले पाले अपने पुत्र
इसलिए लव-कुश कहलाए 'सीता-पुत्र',
कहो वाल्मीकि!, क्या कहलाएंगे 'राम-पुत्र' ?
क्या समझ सकते है किसी माता की पीर
बिना जाने सीता की तकदीर ?
अनेक अकेली माताओं का जीवन दोहराता वही चित्रहार ?
न कालीदास का ‘रघुवंश’, न भवभूति की ‘उत्तर-रामायण’
करती सीता के जीवन का बखान
कैसे कहूँ मैं उन्हें महान व्याख्यान ?
इस महाकाव्य में है नारीत्व पर अनुसंधान;
सीता की ज़िंदादिली, प्रेम-भावना,अग्नि-परीक्षा और वन-गमन
कराते मेरे भीतर ‘वीर छंद’ उत्पन्न ।
इस कविता का हो रहा मेरे भीतर अवतरण
देखकर मेरे स्नेह-संबंध, बलिदान और वचन
और सामाजिक मूल्यों का उन्मुक्त-गान ।
No comments:
Post a Comment