XXI
While I was floating pensively in the sea of
memories of my husband, and my life of
fulfillment and failures, there was still a smile on my lips.
I couldn't have been a mother nagging and morose;
my children were growing watching my face.
Oblivious of their noble genetic, my royal sons.
In their blossoming perception they mastered
the art and science of excellence as Valmiki's disciples.
The foster children of Nature, my loving twins.
Trijala, the clairvoyant, could know my destiny,
thus she rushed to the hermitage with utmost sincerity.
Muni Valmiki permitted her to live with me.
She had been my friend in Lanka for months,
now once again she was here with my twins.
It's indeed a small little world of love's ambiance.
Oh Rama! The king of kings! The able son
of the noble Dasharatha! Your father had
settled your edification from Rishi Vasistha
and Rishi Visvamitra. I, Sita, the eternal
orphan, the elemental sufferer, single-mother,
decided education for my sons from Muni Valmiki.
Who says that a mother, sole woman,
autonomous to nourish hot. Kids?
It was a passing thought in my consciousness,
Now my mind had matured to a peaceful disposition Ion,
all discord spent. I forgave and forget all
injustice done to me, focused on my sons twin.
The cows and calves, the plants, creepers, trees,
insects, birds, butterflies sporting effervescent, spirited life..
were a part of our subsists and our innumerable galaxies,
The only unifying law was the law of Nature.
We are born of ashes, would be back to the ashes,
in between there's no room for hatred, so spread only love.
Peace and tranquility inclined on me, my
motherhood was my prayer and benediction.
Lava and Kusha were my redemption, my salvation.
Yes, my sons grew up bright, disciplined and mighty as
their father, Rama, with every passing day.
They made their teacher proud with the knowledge and power.
Once Maharshi Narada visited the hermitage.
The great wanderer, nomad of the universe sang the
song of virtue, and the qualities of his Lord Rama.
He was brimming with the commendation of
Rama and Rama-Rajya, its peace, prosperity and the auspicious
days. My husband, the father of my sons„
the incarnation of Dharma, the fundamental of all
arts and sciences, the best son, the noblest
king, the paramount brother, the wisest, the valiant
personality, the righteous, benevolent ruler,
the charismatic seer. Did anyone question,
what about the best father and the finest, loving, caring husband?
Did anyone worry about the loveless life
of his beloved wife and the obliviousness of
his children about the existence of their father?
Perhaps these things hardly matter when
considered from a greater world view. Sita's glorified history
and tiara of nobleness was enough to sojourn all trepidations.
With the acquiescence of their guru, Muni Valmiki,
my sons transcribed the verses of the Ramayana
the grandeur of the noblest king Rama, and
learnt those bit by bit. The story of the
killing of the Krauncha, the anguish of
the female bird, that had inspired Valmiki
to pen the story of Rama and "'Ala, now,
became the chosen symphony of Lava
and Kusha. They learnt by heart the tale
of the Swayamvara, the exile, Sita's abduction,
the Rama-Ravana war, Rama 's coronation, the
peaceful Rama-Rajya, and Site's second exile
The epic poem, the Ramayana, sounded such melodious
in their voices, in their animated chorus!
Alas! My heart was pierced by a thousand arrows.
Shatrughna, my brother-in-law, was passing
by one day and heard the twins singing the song.
He rushed in, fell at my feet, and was overjoyed.
I asked him the wellbeing of Ayodhya, my
sisters, brothers, mothers and of course you, Lord Rama.
He was enthralled to sae the mighty, bright, adorable twins.
He informed mP that Rama was going to
perform the Horse Sacrifice, the Asvamedha
Yajna, for the well being of his countrymen.
I could hear the faint beating of my heart,
was Rama taking up another wife for the
Yajna, because it would be incomplete without one's wife.
Again, I never wanted to see the past or future with crystal clarity.
There was no joy, no pain, no greed, no jealousy,
no hope, no fear, that was not my life's existential fact.
XXI
यादों के सागर में कर रही थी प्लावन
मेरे पति, मेरी प्राप्ति-अप्राप्ति, मेरा जीवन
मेरे अधरों पर तैर रही थी फिर भी मुस्कान ।
मैं नहीं बन सकी अवसाद-ग्रस्त,छिद्रान्वेषी माँ, कठोर
मेरा चेहरा देखकर मेरे बच्चे हो रहे थे किशोर
भूल गए कि वे भी संपृक्त है किसी राजघर ।
धीरे-धीरे बनी उनकी धारणा महान
मेरे जुड़वां लव-कुश को महारत मिली कला-विज्ञान
इन वाल्मीकि शिष्यों का प्रकृति ने किया लालन-पालन ।
दिव्य-दर्शी त्रिजटा जानती थी मेरी नियति,
शुभाकांक्षी बन मिलने आई मुझे मेरी कुटी
मुनि वाल्मीकि ने उसे मेरे साथ रहने की दे दी अनुमति ।
लंका से अरसों पुरानी थी वह मेरी सहेली,
खुशी से आई मेरे जुड़वा बच्चों को मिलने अकेली
वास्तव में, प्यार की छोटी-सी दुनिया की वह अग्रदूत ।
हे राम! राजाओं के राजा! दशरथ महान के समर्थ पुत्र!
राजघर में बिता तुम्हारा बचपन
शिक्षक बने तुम्हारे ऋषि वसिष्ठ और ऋषि विश्वामित्र।
मैं, सीता, अनादि अनाथ, पीड़िता, एकल माता,
मेरे बेटों को शिक्षा कौन देता ?
मुनि वाल्मीकि ने उठाया यह भार।
कौन कहता है कि एक माँ, अकेली औरत का संसार
नहीं कर सकता बच्चों का भरण-पोषण ?
यह विचार चल रहा था मेरे चेतन-मन।
मेरे मन में छा गई अपूर्व शांत-वृत्ति,
कलह, अन्याय की कर विस्मृति
करने लगी मेरे जुड़वां बेटों पर ध्यान केंद्रित ।
गाय,शावक, पेड़-पौधे, लताओं के गुंठन
कीड़े-मकोड़े, पक्षी-पखेरू, तितलियों के खेल, देते हमें उत्साही जीवन
कराते हमारे अतीत की असंख्य आकाशगंगाओं का स्मरण ।
सभी के लिए योजक बना प्रकृति का नियम
भस्म से हम पैदा हुए, बनेंगे भी भस्म ,
इस यात्रा में घृणा का नाम कहाँ? फैलाओ केवल प्रेम ।
शांति-प्रशांति का मुझ पर हुआ वर्षण,
मातृत्व बना मेरी प्रार्थना-मंगल कामना
लव-कुश मेरे मोक्ष के द्वार, मेरे जीवन-धन ।
हां, मेरे पुत्र थे तेजस्वी, पराक्रमी और अनुशासित
अपने पिता राम की तरह संकल्पित
शिक्षक को अपनी ज्ञान-शक्ति से करते गौरवान्वित ।
एक बार महर्षि नारद पधारे आश्रम
ब्रह्मांड के यायावर सुनाम ,
जपने लगे सस्वर ‘राम-राम’।
उनके गीतों में राम, राम-राज्य का गुणगान
शांति, समृद्धि और शुभ दिनमान
मेरे पति, मेरे पुत्रों के पिता, धर्मावतार कुलीन ।
मौलिक कला-विज्ञान, सबसे अच्छा पुत्र, सर्वोपरि भाई, बुद्धिमान,
बहादुर व्यक्तित्व, धर्मी, करिश्माई द्रष्टा,परोपकारी शासन,
सबसे अच्छे पिता,सबसे अच्छे पति के बारे में क्या किसी ने उठाया प्रश्न ?
क्या किसी को थी चिंता उनके पत्नी के प्रेमहीन जीवन की?
क्या किसी को थी चिंता,अपने पिता के अस्तित्व से बेखबर उनके बच्चों की ?
क्या किसी को थी चिंता, औरत के अवहेलित जीवन की?
वैश्विक दृष्टिकोण से शायद ये बातें हैं अमहत्वपूर्ण
सीता का गौरवशाली इतिहास, कुलीनता का प्रदर्शन
बना सभी भेदक-वेधक बिन्दुओं का मुख्य आवरण ।
मेरे पुत्रों को मिला अपने गुरु वाल्मीकि का आशीर्वाद ,
मेरे बेटों ने रामायण के सारे छंदों को किया याद
राजा राम की उदारता और उनका भव्य प्रासाद ।
नर क्रौंच का शिकार, मादा पक्षी के चीत्कार की वाणी
सुनकर द्रवित वाल्मीकि ने लिखी राम-सीता की कहानी
जो आगे जाकर प्रमुख गीत बना, लव-कुश की मुंह-जबानी।
उनके हृदयंगम हुई कहानी सम्पूर्ण
स्वयंवर , पहला निर्वासन, सीता का अपहरण ,
राम-रावण युद्ध, राज्याभिषेक, राम-राज्य, फिर दूसरा निर्वासन।
उनकी मधुर आवाज में रामायण
उनका समवेत सस्वर गान !
आह! मेरा हृदय हुआ मानो हजारों बाणों से विदीर्ण ।
मेरे देवर शत्रुघ्न गुजर रहे थे उधर से, एक दिन
जब सुना उन्होंने जुड़वा बच्चों को यह त्रासद गान
दौड़ते हुए आए, रोते हुए गिरे मेरे चरण ।
मैंने उनसे पूछे अयोध्या के हाल
मेरी बहनों, भाइयों, माताओं और निस्संदेह, मेरे स्वामी राम, तुम्हारे हालचाल
शक्तिशाली, उज्ज्वल, मनमोहक जुड़वाँ बच्चों को देखकर हुए वह खुशहाल ।
बताया तुम करने जा रहे हो एक यज्ञ
अश्वमेध यज्ञ
प्रजा की भलाई के लिए ।
यह सुन मेरे दिल की धडकन थमी ,
कहीं राम नहीं ला रहे दूसरी पत्नी ?
यज्ञ पूरा कैसे होगा अपत्नी ?
धुंधला नजर आने लगा मुझे, मेरा अतीत और मेरा भविष्य
न कोई खुशी, न कोई गम, न कोई लालच, न कोई ईर्ष्या,
न कोई आशा, न कोई अस्तित्व, न कोई भय ।
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