IX
When tapas was my sole credit in Lanka, you met
Hanuman, the Marvellous Monkey in the forest.
Hanuman, the 'Veda vedanga paarangatai,
the scholar of all Vedas, 'nava vyakarana pandita, expert
in the nine schools of grammar,'buddhimata varistah', the
wittiest, wisest, cleverest mightiest and the most devoted of Lord Rama'
He met you at the command of Sugreeva, the
vanara king, whose throne was usurped
by Vali. The saga of your friendship
with Vanaras, killing Vali you restored Sugreeva to throne.
The Sundara Kanda narrates in magnificent minutiae
Hanuman's dedication for Siya-Ram, by crossing the ocean in search of me.
He encountered the sea demonesses and demons like
Mainaka, Surasa and Simhika, overpowered
them and reached me. He narrated in a sing-song voice sitting
on the tree what you had told him of me,
my dark tresses, my comely limbs as if
smeared with raw turmeric, the natural
collyrium in my eyes, betel leaf lips,
my beauty like a gem tied in worn
out cloth, my persona like water in freezing
winter, and like the sacred Vedas. I heard from him
the tales of our courtship, our wedding,
the exile, abduction, separation and pain .
Overwhelmed hearing Rama-nama after ten
months, I blessed Hanuman as if he were my child, and
gave him my remaining ornaments as a
token. Hanuman consoled my bereaved soul
in kindest words, "Devi! Mother Sita, I crossed
the sea to find you and give my Lord's message
and take yours back. I am most humbled
to think I am of some use to Rama-Sita.
You are Goddess Laxmi incarnate, thus
you could have burnt Lanka and the
demon Ravana with just one blink.
But the chaste, dignified woman that you
are, you have left it to your husband
to perform his duty of rescuing, protecting
his wife. May I touch your pious feet Mata?
Shedding tears of joy flourishing, I accepted
your Signet-Ring from Hanuman. Yes he
was right Raghupati, that woman loves
the fortification of her man, fee!s secure with him.
This is her cipher of chastity, the glory
of her feminine prosperity. Hanuman wanted
to take me at once to you, crossing
the hundred yojanas of the sea
in one leap. But husband dear!
I wanted you to come and release me.
I could have waited for two more months
and then died, but given no other man this credit.
Giving my Crest-Jewel to Hanuman to
hand it over to my Lord, I blessed him.
Maruti lift with a promise to be back like the golden flame.
Oh... what happened after that? He was caught
by the demon! "Oh Ravana, I am the son
of Wind God, the devotee of Rama. My ultimate
order or request is, bow to Lord Rama and
Mata Sita, your life will be redeemed. The
Sita whom you have imprisoned, is nothing but
the dark disbanding perched over Lanka."
Ravana's blazing anger knew no bounds.
To set fire on his tail, he issued orders.
As Hanuman's tail-end was ablaze, he was bemused.
Rama's glory, Sita's blessings, Wind-God's inheritance made
fire abstain from burning him, he was released.
To my utter surprise and amusement
Hanuman leapt like a flash over
the minarets and palaces, monuments and mountains
burning the extravagant golden Lanka
spreading a million sparks. After
destroying half of Lanka, he dipped
his burning tail in the sea, and came
back to pay his obeisance to me, Vibhisana
and the other noble souls of Lanka. Then
he rose up to the Aristha mountain to
take a leap for his return flight. I
counted time beneath my finger tips waiting for my Lord
with a new-found hope. The episode taught me.
how to discover abstinence, without trailing decorum
of my myriad-hearted transience.
IX.
लंका में मेरे तप से मिले
तुम्हें वन में हनुमत
जो “वेद-वेदांग-पारंगत” ।
नौ व्याकरणों के विशेषज्ञ- “नव-व्याकरण-पंडित” , ,
बुद्धिमानों में बुद्धिमान “बुद्धिमतां वरिष्ठम्”,
सर्वशक्तिमान, भगवान राम के परम भक्त।
मिले हनुमान तुम्हें, मान सुग्रीव का आदेश ,
बाली ने हथिया लिया जिसका प्रदेश
भेजा तुमने वानरों को मित्रता का संदेश ।
बाली-वध कर तुमने सुग्रीव को सौंपा सिंहासन
मैनाक, सुरसा और सिम्हिका का कर दर्प-भंजन
हनुमान ने दिखाया ‘सुंदर कांड’में अतुल्य समर्पण
अशोक-पेड़ पर बैठ हनुमान ने सुनाया गीत
मुझे याद आ गया तुम्हारा दर्द भरा संगीत ,
मेरे काले बाल, मेरे अंग-अंग जैसे हो पीत
मेरी आँखों की काजल, सुपारी के पत्ते जैसे होंठ,
फटे कपड़ों में मेरे सौंदर्य-मणि का अस्तित्व
हाड़-कंपाती ठंड में स्वच्छ जल जैसा मेरा व्यक्तित्व।
पवित्र वेदों की तरह किया मैंने श्रवण
हमारी शादी, हमारे प्रेमालाप की दास्तान
दर्द,वनवास, अलगाव और अपहरण ।
दस महीनों बाद सुन ‘राम-नाम’, हुई अभिभूत
दिया आशीर्वाद हनुमान को, जैसे हो मेरा पूत
दिए मेरे बचे हुए गहने, तुम पा सको सबूत।
मेरी शोक संतप्त आत्मा को हनुमान ने दी सांत्वना
"देवी! माता सीता, समुद्र पार कर हुआ मेरा आगमन
देने को प्रभु-संदेश- कैसे खत्म करें रावण की निर्यातना?”।
“ हे लक्ष्मी की अवतार !
मैं सबसे ज्यादा खुश
काम आऊँ राम-सीता के कुछ ।
“पल में जला सकती थी आप रावण समेत लंका
मगर सोचा होगा, पवित्र, गरिमामयी नारी-रक्षा में
बजना चाहिए सदैव पति का डंका”
“ माते! कर सकता हूँ आपके चरण-स्पर्श ?”
खुशी के आँसू बहाते हुए, मैंने स्वीकारी
अंगूठी जिस पर थे तुम्हारे हस्ताक्षर ।
हाँ, रघुपति! सदैव स्त्री पसंद करती आदमी की प्राचीर ,
अनुभव करती अटूट सुरक्षा-वलय
और नारीत्व की शुद्धता,महिमा का तूणीर ।
थी हनुमान की आंतरिक चाह
उसी समय तुम्हारे पास ले जाने के लिए
फांद सौ योजन समुद्र की राह ।
हे पति परमेश्वर! मेरी चाह तुम आकर कराओ रिहाई
दो महीने और करूंगी इंतजार
भले ही,मर जाऊँगी, मगर नहीं दूँगी दूसरे आदमी को श्रेय?
हनुमान को भेंट की मैंने चूड़ामणि
तुम्हारे लिए, और दिया आशीर्वाद
वापस आने का कहकर उड़ा हनु ।
ओह ..उसके बाद ? फंस गया राक्षसों की गिरफ्त
“हे रावण, मैं पवन-पुत्र हनुमान
भगवान राम का परम भक्त।
“ मेरा अंतिम आदेश या अनुरोध- ‘रावण ! जाओ सुधर’
भगवान राम-सीता को प्रणाम कर
हो जाएगा तुम्हारा जीवन-उद्धार ।
पता है, कौन है अपहृत सीता ?
लंका पर छाए हुए
तिमिर को मिटाने वाली सलिता।
रावण की भभक उठी क्रोधाग्नि
दिया आदेश सैनिकों को
हनुमान की पूंछ में जलाओ वहिन ।
जैसे ही जली हनुमान की पूंछ
वह हुआ बहुत खुश
ईश्वर के आशीष से बच गया अशेष।
मैं आश्चर्य और मनोरंजन से अभिभूत
गगन में हनुमान उड़ा विद्युत-गति
करते हुए अतुल्य सोने की लंका भस्मीभूत।
चारों तरफ आग ही आग
आधी लंका का नाश
फिर डुबाई जलती पूंछ समुद्र-सराग ।
लौटा फिर मेरे पास आबाद
मुझे,विभीषण और लंका की अन्य विभूतियों को
देने के लिए हार्दिक धन्यवाद ।
फिर छलांगा अरिष्ठ पर्वत, करने को वापस गमन
गिन रही दिन उँगलियों पर, हे मेरे भगवान
नई उम्मीद लिए, कि कब होगा तुम्हारा आगमन?
सिखाती मुझे यह घटना
जीवन में सदैव संयम बरतना
और चंचल मन को नियंत्रण में रखना ।
No comments:
Post a Comment