V
Yes, I was the woman in love, the imminent queen of
Ayodhya, getting down from the palanquin.
We met on our way to Ayodhya the
wife of Sage Gautama, Ahalya. She was
incontestably effervescent, and her voice
an authority of charm. She narrated the
tale of Indra's lust for her. And the
myths of Sati Anasuya, Rishi Atri's wife,
and Sati Savitri, who saved Satyavana's life.
Me, Vaidehi, the new woman, would ask you
oh Lord! Can the grace of a woman redeem
only with the touch of .a man? And can
the grace of woman wane only with
the fraudulent touch of a man? The
human psyche is designed to move ahead
and reach superior pinnacles with time.
What would you explain of rocked-Ahalya who lost her
purity and then her human form and invocation?
I can see, woman, no more you are the
holiness and the power - epithet
of dignity, potency, magnificence, compassion,
love, splendor. You aren't adored
like Maheswari or Saraswati. Wake up to
the call of Nirbhaya, let them call it blasphemy.
You are the tarnished, deflated doll, t
he consumerist piece to be obtained, battered
bartered, sold, wronged, cast away.
Can you be the harbinger of a time
when Nirbhaya would be adept to stand firm
despite a thousand scars on her body and soul?
Can you be the harbinger of a time
When no Kaikeyis would scheme a sketch
to cast away Rama and Sita to crown
their boosting egos? Can lightning
and thunder stop splitting you apart
as creatures weak, callous and concomitant ?
I received a hearty welcome in the heart
of my Lord Rama and in Ayodhya.
King Dasharatha was like the highest light.
His three queens Kaushalya, Kaikeyi and
Sumitra, our blissful mothers now,
were like deeper poise in our spirits by alchemic power.
Accompanying Rama in his expedition of the city
I felt like a voice for the voiceless.
I was your surefire strength, innermost brainwave .
You saw in me your internal self, your intuition
'Jai Siya-Ram' was the melody of the masses
I was your soul-mate, peace and paragon.
King Dasharatha sought discharge from the
cares of the crown, the common man's yank
of optimism and assumption saw Rama and Sita
as the herald of a golden age, the
Rama-Rajya of peace and glory.
But the hunchback ,crooked, scheming Manthara, queen
Kaikeyi's confidante and attendant, cooked
our future. Bharata, the son of
Kaikeyi, should be the future king, and not
Rama, queen Kaushalya's son. Rama has
to go for exile into the woods for fourteen years!
Meticulously stimulated and spewing out billows
of lethal melanoma, she convinced
her mistress. Kaikeyi sulked, raved, raged,
retiring into her Chamber of Protest.
King Dasharatha had promised her two boons
years back for saving his life
by serving him. The boons were settled.
We were exiled. No my Lord! No one
Exiled me, your Sita. I have been
the audacious, adamant, self -willed, self-motivated
woman, forever. I joined you, because
that was my dharma, my duties to my
husband. Lakshmana, your doting brother,
and Sita, your devoted soul-mate wife
redeemed your father's words thus
demanding the moral order.
You and me, side by side, left
the coronation, took the path to paradise;
I swore, I'll carve up all, endure all, still smile.
We talk of feminine-frailty in accepted
hypothesis. Do we remember the courage
and conviction of Savitri g Sita, Gargi,
Maitreyi, Apala Ghosha, Visvavar
Mother Teresa a, Helen Keller, Florence Nightingale
and Malala? It was no discounted g d adolescent
Passion, nor feminine stubbornness. True, I was
used to the placates of life in a generous manor.
Woman knows when to spare the securities
of home and take up weathered severity.
Her sole religion is to render service to
nature and man and give solace and comfort.
We gave away our wealth and belongings
to the creditable, poor and needy.
And left for the woods in the midst
of burning, irrepressible grief
of Dasharatha, your three mothers, two
brothers, our friends, kith and kin, our companions.
Father Dasharatha died heart-broken
after our departure. Bereaved Bharata
came with Shatrughna and people of
Ayodhya to our cottage in Chitrakuta
rejecting the crown, forswearing his mother
and banishing himself with us. Elder
brother directed him to take his vows
back. Went back Bharata with the
dharma of his father and sacred sandals
of Rama, to place those on the throne
and rule Ayodhya as brother's ambassador.
True, our notions of justice are prejudiced.
True, dharma surpasses all metamorphosis .
Dharma redeems us all. Breaking the quietude of trepidation
and assumptions wood-ward we moved.
5
मैं करती थी तुमसे अगाध प्यार,
पालकी से नीचे उतरकर बनने जा रही अयोध्या की रानी
रास्ते में मिल गई अहल्या, गौतम ऋषि की पत्नी ।
वह थी निस्संग, मगर मधुर आवाज की धनी
उसने सुनाई मुझे इंद्र-वासना, ऋषि अत्रि की पत्नी
सती अनसूया और सती सावित्री की कहानी ।
मैं, वैदेही, नई नारी - तुम्हें पूछूँगी ये प्रश्न
क्या किसी औरत का उद्धार हो सकता है छूने से किसी के चरण ?
क्या किसी दुष्ट आदमी के छूने से मिट जाता है उसका सम्मान ?
समय के साथ नई ऊंचाइयों को छूता सदैव मानव-मन
क्या तुम उस शिला-अहल्या के मानवीय रूप का करोगे आह्वान
जिसने खो दिया अपना पवित्र तन ?
महिला अब और नहीं रही पवित्रता, प्रेम, शक्ति, गरिमा का संकेत
वैभव,विशालता, करुणा, माहेश्वरी या सरस्वती की तरह पूजित
निर्भया का आह्वान सुनो, भले ही,क्यों न कहे वे इसे‘ईश-निंदा’ प्रेरित।
तुम हो अब अपवित्र, बाजारू, नष्ट-नारी,कलंकित
क्या तुम बनोगी समय की अग्रदूत
अडिग निर्भया ने झेले देहात्मा पर हजारों हत्यारे हस्त ?
क्या तुम बनोगी समय की अग्रदूत
अब और नहीं होगी कोई ‘कैकेयी-योजना’ फलीभूत
नहीं मिलेगा राम-सीता को निर्वासन,नहीं होगी कैकयी की स्वार्थ-पूर्ति?
कौन कर सकता अलग तुम्हें उन जीवों से,जो हो कमजोर, सहवर्ती ?
अयोध्या वासियों और मेरे भगवान राम का मन
हार्दिक शुभकामनाएँ देता था मुझे प्रतिक्षण ।
तेजस्वी राजा दशरथ, तीन रानियाँ कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा,
प्रेमभावना और मधुर व्यवहार से बनी हमारी मित्र
और हमारी आत्माओं में बनाया अमिट क्षेत्र ।
नगर-अभियान के दौरान हुआ मुझे प्रतीत
मैं बनी गूंगे राम की वाक-शक्ति
मैं थी तुम्हारी अंतरतम तरंग, अचूक ताकत ।
तुमने झाँका अपने अंतरंग और अंतर्ज्ञान
सुन 'जय सिया-राम’ जनता के मधुर-वचन
मैं बनी तुम्हारी शांति का आदर्श उदाहरण ।
राजा दशरथ छोड़ना चाह रहे थे अपना सिंहासन
अपने आँखों के तारे राम-सीता के किए दर्शन
राम-राज्य के स्वर्ण-युग का वे करेंगे बीजारोपण ।
रानी कैकेयी की विश्वासपात्र मंथरा ने गढ़ा हमारा भविष्य
कैकेयी-पुत्र भरत होगा राजा, नहीं मिलेगा राम को राज्य
राम को चौदह साल का वनवास मिलने से होगा न्याय !
बहकावे में कैकेयी ने दशरथ से मांगे दो वरदान
जिसे देने के लिए राजा ने लिया प्रण
बचाई थी कभी कैकयी ने उसकी जान ।
तुम्हें मिला वनवास, मेरे भगवान!
मैं तुम्हारी सीता रही सदैव दुस्साहसी, अडिग, उन्मुक्त-मन ,
मैं तुम्हारे साथ गई, क्योंकि यह मेरा धर्म और कर्तव्य-पालन ।
तुम्हारे भ्राता लक्ष्मण,
मान तुम्हारे पिता के वचन
नैतिक आदेश समझ चले हमारे साथ वन ।
हमने तुरंत त्याग दिया सिंहासन,
खाई मैंने कसम, करूंगी सब सहन
मगर अधरों पर कभी नहीं मिटने दूँगी मुस्कान ।
नारी नहीं होती धोखेबाज, याद करो सावित्री,सीता, गार्गी,
मैत्रेयी, विश्ववरा,अपाला
मदर टेरेसा, हेलेन केलर, फ्लोरेंस नाइटेंगिल और मलाला ?
मेरा निर्णय नहीं था कोई किशोरावस्था की भावुकता
और न ही मेरी हठधर्मिता
सच में, वह था मेरे उदार जीवन की मधुरता ।
नारी जानती हैं घर की सुरक्षा एकमात्र धर्म
प्रकृति और मनुष्य की सेवा उससे परम
और उन्हें सांत्वना और आराम देना सबसे परम ।
अपना सब-कुछ दान देकर हम चले गए वन
डूबाकर सबको शोक-भवन
माता-पिता-भाई, मित्र-परिजन ।
पिता दशरथ हुए दिवंगत
हृदय विदीर्ण होने से
हमारे जाने के उपरांत ।
शोक-संतप्त भरत,शत्रुघ्न और अयोध्या के जन
चित्रकूट की हमारी कुटिया में आए, तज राजसिंहासन
अयोध्या छोड़कर करेंगे हमारे साथ वन-गमन ।
तुमने तुड़वाई भरत की प्रतिज्ञा
चले गए वह वापस अयोध्या
लेकर तुम्हारी खड़ाऊँ ।
सिंहासन पर रख खड़ाऊँ
राजदूत बन अयोध्या पर करने लगे शासन
सच में, न्याय की थी यह धारणा नूतन ।
सच में, सारे परिवर्तनों को पीछे छोड़ देता है धर्म
सच में, हमें धारण करता है धर्म
सच है, वैराग्य के डर को मिटाता है धर्म ।
(और सारी मान्यताओं तो तोड़कर हम चले गए वन।)
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