VIII
Sita in the Asoka-vana, it an immortal
saga of chasity of women and courage and
conviction. Unlike every father blessing their
daughters to 'get' the marital-bliss after wedding,
my father Janaka had sanctified me to 'create' happiness in marriage and lighten the lamp of harmony between you and me.
Like an autonomous woman, be the organic whole of womanhood, like the Goddess Earth, be reclaimed; like earth be natural.
At once like Goddess Kali, formidable,
naked, fierce, uninhibited; and like Goddess
Parvati, elegant, tender, decorous, beautifully
dressed, elegantly attired, and standing for conjugal commitment.
Anyway, I was never a subservient, cowered wife.
But yes, I was your devoted partner. I abandoned my
jewelry in the jungle to leave a trail behind
for you to follow me. I was Banadurga. Could you get my
message my Lord? It was that — dharma
of a woman was defied by the demon
breaking the code of conduct of an upright man
thus converting Parvati into Kali,
from attired to naked, from cosmos
to chaos. In every age woman has given
this message — adore her, she is Parvati,
Laxmi, Saraswati. Overrun or jeopardise her,
civilization becomes forest, Kali descends
on the chest of the fanatic; thus, when woman
abandons her elegance, death descends.
Why not ask the questions of fidelity to
the chauvinist rather than just upholding
the social value of fidelity on her? Why
is her reputation soiled at the drop of
a hat? My father King Janaka
had got me from the golden casket in a furrow.
Rejoicing, he took me home. So I am the essential
orphan, the girl child. I am the story untold
in the syntax of many an orphaned, rejected girls.
But forget not, oh civilized ones, that the
same orphaned girl can make or mar the
destiny of Ravana, the ten-headed, the king of
kings. Even though I am remembered in my
simple domestic roles among the earthly women, yet
they know me as the woman gifted with
spiritual competence. I am one among all,
yet I go beyond all. In the Asoka-vatika
well-guarded by the dasis in that gynaeceum
I was shining like Ravana's glorious trophy!
But he knew not, I was not a woman, but his
death incarnate, whom he had snatched from fate and adored
Skilled ogresses were left with me to dole out,
offering clothing, food, gems and diamonds. No one
was permitted to meet me unless allowed by the king.
In the Rakshasas' propinquity and the close
watch of fetid demonesses, I saw the city
of Lanka, Ravana's palace in the island
with a sense of quiver in my collapsing
body, I lamented day and night for
lusting after an aberrant golden deer
and inferring treason on dear Lakshmana.
Then came the ten-headed king, found
me weeping like a willow, and he was shaken.
Pleaded with me to see his huge palace with pillars
of ivory, wardrobes with flamboyant gems
doors of gold, vegetation exotic, and offered,
"Oh Sundari ! All this is yours. Be my Queen of Queens
leave that yogi, Rama, the wandering mendicant;
with me choose the delight of the world."
I veiled my furious face in my robe in repulsion
he took it for my fear and emotional outburst
"Marry me, oh ravishing lady. Don't fear me." He fell at my feet.
Said the demon, he had never bowed down thus
I cordoned myself behind a plain thin green grass
and ordered, without my wish, no one can cross
this boundary of the grass, be him a man or
a demon or god, and repeated all that
I had said in the Pushpak — that Rama
was my Lord for lives and he was the
ultimate authority of the universe. He was
the Almighty. The outrage of Rama's wife, I said,
makes one susceptible to fatality.
My insolence and pride could not be tamed
Ravan's pompous offers subjected him to be doomed.
"Haughty woman! I give you twelve months
time to accept and marry me. Else my cook
will slaughter you and prepare my meal."
I was amazed! I never feared him nor
worried about death. My ruthless, jagged wardresses
couldn't panic me, couldn't confab.
The contingent of rakshashis, and the
rivaling eternities of time, nothing could
budge me by an inch; because I was chanting your
name 'Rama-nama,' breathing in your love my redeemer.
I accepted the wisdom that Ravana has given me twelve months
time; yes, life gives us time to take firm steps.
Days followed days, weeks followed weeks.
A comatose schedule became my way of life.
In captivity, days were a nightmare, nights pierced like stiletto,
"No!" was the only word I articulated to all, water
was my only food intake for days. My
thirteenth year of leaving Ayodhya was here.
This was the year of purgation of my soul
the year of my ordeal of patience and perseverance.
Now I distinguished illusion from the real.
After a few months I made friends with Trijala
and Anala, Vibhishana and Sarama's
daughters. Vibhishana, Ravana's younger
brother and his wife and daughters were
your devotees, resembling lotuses
in the midst of mud. Belonging to the rakshasha
race by birth, even they were the preservers of dharma.
I was told about Queen Mandodari, Ravana's
virtuous wife, mother of Indrajit.
And about Sulochana, Indrajit's wife, the Naga Princess,
the noble and wise woman.
Ravana hated Vibhishana, his wife and children.
Tell me oh Rama! Righteousness incarnated!
Why grace was disparaged and redemption faced judgment?
Why vice was rewarded and virtue punished?
VIII
सीता के अशोक-वन का उद्धहरण,
नारी की पवित्रता,साहस और सजा का अमर कथन
हर पिता देता बेटियों को वैवाहिक-आनंद की 'प्राप्ति' का आशीर्वचन ।
इसके विपरीत मेरे पिता जनक का वरदान
शादी खुशी ‘पैदा’ करने वाला पवित्र-बंधन
और तुम्हारे-मेरे बीच सामंजस्य का हो दीप-प्रज्ज्वलन।
एक मनमौजी नारी बन धरती माता
फूँकती पूरी तरह से नारीत्व में प्राण
जैसे पृथ्वी भरती प्रकृति से अपने गर्त ।
काली की तरह, दुर्जेय, नग्न, भयंकर, निर्जन;
पार्वती की तरह पहने कोमल, आकर्षक, खूबसूरत परिधान
खड़ी हुई सुरुचिपूर्ण ढंग से लिए प्रतिबद्धता का संयुग्मन ।
वैसे भी, मैं कभी न किसी के सामने झुकी, और न रही गुलाम
लेकिन हां, मेरा अपने साथी के प्रति रहा समर्पण हरदम
मैंने जंगल में गहने फेंके तुम्हारे बढ़ाने को अपने कदम।
मैं थी बाणदुर्गा
क्या तुम्हें मेरा संदेशा नहीं मिला, मेरे भगवान ?
क्या यह धर्म है, दानव ने एक अबला महिला से लिया पंगा ।
एक ईमानदार आदमी ने तोड़ी आचार-संहिता
ताकि पार्वती बन जाए काली ,
हो जाए सुंदर परिधान खोल निर्वस्त्रा।
ब्रह्मांड में कहीं फैल न जाए अराजकता
हर युग में नारी ने दिया प्यार का संदेश ,
वह है पार्वती, लक्ष्मी, सरस्वती की विशेषता ।
उसे कुचलने से सभ्यता हो जाएगी जंगली,
काली पाँव रखेंगी आततायियों की छाती;
नारी तजेगी लालित्य,उठेगी मौत की उंगुली ।
उठे निष्ठा पर सवाल
नारी-निष्ठा के सामाजिक मूल्य क्यों ?
क्यों उसकी प्रतिष्ठा पर बवाल ?
मेरे पिता थे राजा जनक
मिली मैं हल जोतते समय स्वर्ण-सन्दूक
वे मुझे ले आए अपने चम्पक ।
इसलिए कहना जरूरी हूँ एक अनाथ,
बालिका की अनकही-कहानी
कई अनाथ, अस्वीकृत लड़कियों के कथानकों पर आधारित, हे नाथ !
ओह, सभ्य लोगों, मत भूलो प्रीति
एक ही अनाथ लड़की सकती है बदल
राजाओं के राजा, दशानन रावण की नियति ।
भले ही, मैं याद की जाती हूँ मन-ही-मन
सांसारिक महिलाओं की सरल घरेलू भूमिकाओं में,
फिर भी वे जानते हैं मुझे मिला आध्यात्मिक वरदान ।
मैं सबसे ज्यादा वंचित
फिर भी मैं सबसे आगे
अशोक-वाटिका में दासियों द्वारा संरक्षित
मैं लग रही थी जैसे रावण की शानदार ट्रॉफी !
मैं नारी नहीं, बल्कि थी उसकी मृत्यु का अवतार,
अपने दुर्भाग्य पर कभी नहीं मांग पाएगा माफी।
उसने मेरे पीछे लगाए कुशल नरभक्षी,
जो करते भेंट वस्त्र, भोजन, रत्न और हीरे-जवाहरात
बिना राज-अनुमति के कोई नहीं मिलता मुझ मीनाक्षी।
देखे मैंने नजदीक से राक्षसों के प्रपंच
मैली-कुचैली राक्षसियां और
लंका- द्वीप में रावण का आवास।
घूमने लगा मेरा सिर
मैंने दिन-रात किया विलाप
क्यों उठा मुझमें स्वर्ण-मृग का विकार।
और प्रिय लक्ष्मण पर राजद्रोह का आरोप
फिर आया दशानन
मुझे रोता देख करने लगा कोप ।
कहा- देखें रत्न-जड़ित, हाथीदांत,
खंभों वाले, सोने के दरवाजों वाला
प्रासाद विराट ।
"ओह सुंदरी! यह सब तुम्हारा धन
बन जाओ मेरा तन-मन
छोड़ दो योगी भटकते भिक्षु राम को वन । ”
अपने तमतमाए चेहरे को मैंने ओढ़ाया घूँघट
समझ इसे मेरे डर और भावावेग
"मुझसे शादी कर लो, ओह सुंदरी! मुझसे डरो मत।"
यह कह मेरे पैरों में गिर पड़ा झट।
कहने लगा, इस तरह पहले उसने नहीं किया साष्टांग
छुपाया मैंने अपने आप को हरी घास के पीछे
और कहा, बिना मेरी इच्छा, कोई नहीं सकता सीमा-लांघ।
चाहे वह आदमी हो या दानव या भगवान,
और फिर से दोहराने लगी वे सारी बातें
जिसे पुष्पक में सुन रहा था वह हैवान।
राम मेरे जीवन के भगवान
ब्रह्मांड में सर्वशक्तिमान
राम-पत्नी का आक्रोश, देगा तुम्हें मौत का वरण ।
मेरी जिद, अभिमान कर सकते हो वश?
रावण का दंभी प्रस्ताव
कराएगा उसका विनाश ।
"घमंडी औरत! मैं तुम्हें देता हूँ बारह महीना
मुझे स्वीकार कर, शादी करने के लिए
नहीं तो, मेरा रसोइया बनाएगा तुम्हारे शरीर का भोजन। ”
मैं स्थिर-अचल !
न मुझे मौत का डर, न ही चिंता
न घबराई दंतेली राक्षसियों से बिलकुल ।
राक्षसियों का दल
समय की अनंत प्रतिद्वंद्विता,
एक इंच तक कर न सके विचल।
मैं जप रही थी 'राम-नाम,'
तुम्हारे प्यार में सांस ले रही थी, मेरे उद्धारक
हां, जीवन में समय मिलता है उठाने को दृढ़ कदम ।
दिनों पर दिन, सप्ताह पर सप्ताह
जीवन होने लगा अचेतन
कैद में, दिन में दुःस्वप्न, रात में काँटों की कराह। ,
"नहीं!" था एकमात्र शब्द- जिसे मैंने कहा हर हाल,
जल मेरा एकमात्र भोजन
हुए अयोध्या छोड़े तेरह साल ।
मेरे आत्म-शुद्धिकरण का साल
मेरे धैर्य और दृढ़ता की परीक्षा का साल
जानने लगी मैं यथार्थ और भ्रम-जाल ।
कुछ महीनों बाद हुई मेरी दोस्ती
त्रिजटा,अनल, विभीषण और सरमा-पुत्रियों से
जो रावण को सदैव कोसती।
विभीषण का परिवार आपका भक्त
कीचड़ में कमल-सदृश
जन्म-जात राक्षस फिर भी आप्त।
मिली मुझसे रानी मंदोदरी,
और इंद्रजीत की पत्नी सुलोचना ,
वह थी नाग राजकुमारी, कुलीन और बुद्धिमान नारी ।
बताइए हे राम! धर्म के अवतार!
क्यों अनुग्रह नापसंद ? और मोचन तार-तार ?
क्यों पुण्य को दंड और पाप को पुरस्कार?
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