First battle, then harmony. Peace paid its price as did war
Mandoodari, Sulochana and other bevy of beauties.
Became widows in this game of fetid arid fair.
The ensemble of Ravana mourned, Vibhishana the most of all.
An ordinary mortal killed Ravana, the surprise most awful
Lanka paid for the offense of Ravana, the pain inestimable.
Vibhishana performed the funeral of his brother elder
Returned to heaven Matali, Indra's original charioteer.
Vibhishana installed to the throne, now he was the healer.
Mandoodari and her co-waves lamented for
their husband dear, the devotee of Lord Shiva
the pride and delusion of Lanka, Ravana, the supreme scholar.
I consoled them that it was the handiwork of providence
I had tears in my eyes for the thawed out predicament, said
"take a panoramic view of life sisters and mate.'"
Hanuman came with my Lord's news of victory
I had seen it all through Trijala even though
Perhaps it was an end of exile, and back to royalty.
Oh Rama! Why couldn't you cast aside all business
and rush to meet me, your wife dearest dear?
In the offing, the weird silence at Asoka intensified further
Next, you sent Vibhishana to take me to
Your presence; why didn’t you come in person oh dear?
Why was this misgiving, this ebb flow, what was year fear?
Ravana defeated,Vibilisana an ally Rama and now king of Lanka is,
sent to take Sita to rama's presence. Were there any political
implications to this? Were you showing some political propriety?
was I, by default, now the political property of Lanka?
One king abducted me, I became their captive, and the next king
to hand me over to you—wasn't it Sita's co modification?
Sarama came, bathed, clothed, ornamented and perfumed me
for my reunion with Lord Rama after a year .
I wanted a glimpse of you without all these, I was so eager.
At this point I question the necessity of all these ablutions. Was Sita unacceptable to you in her exilic raiment, a fount of raw energy that
she was? The purity-pollution debate had it already started in your mind?
As my palanquin approached too near
the vanaras and rakshashas gazed with admiration .
Vibhishana tried to remove them and then, I heard you roar!
"Why Vibhishana! Why are you trying to
shove these men aside? Do you think the
are watching a chaste woman any more
The propriety, the chastity of a woman is
after all resolute by her destiny!
she Was solely responsible for this war, this disaster.
Let her meet me full public View;
no more concerned am I to be her lone admirer
The melting picture of this woman doesn't touch me anymore.
I was confused, stupefied, what happened
to my love, to his protective sovereignty, my dear!!
I felt nude, defenseless, with a grim cordon 'of fear.
"Siteh! I abandon you from today;
I took revenge on Ravana for being a coward,
a thief to abduct a lonely, hapless woman.
Hanuman, Lakshniana, Sugreeva, Vibishana
made it achievable; but the war was surely not for your
sake, it was to redeem my forefathers' honour.
My eyes perforate my heart at your very sight.
You lived alone in another man's house day and night.
No man of your clan, nor your husband, was there to protect!
Ravana could not have left you unpolluted
after all You are a fine-looking, desirable woman!
All d II glory and grace have left you now, you are besmirched .
You were born of unknown parenthood
thus your purity was already half -challenged.
Now you have lost it all; you must not be chaste anymore,
A woman can never situate herself alone, she is
ever a limerick, a running stream or a creeper.
She needs a man every time to safeguard her
The dignity of a king prevents him from
accommodating a wife and a queen like you,
since you have crossed the 'Lakshmana rekha.
You are free to take your decisions now on and
show not yourself to me, go back wherever.
Find for yourself, woman, another protector and provider."
XV.
पहले लड़ाई, फिर सौहार्द्र
युद्ध ने किया शांति को अगवा
मंदोदरी, सुलोचना और अन्य सुंदर सधवा
बनी इस घृण्य खेल में विधवा।
रावण की मौत पर, रिश्तेदारों का विलाप,
विभीषण का भयंकर रुदन-क्रंदन, प्रलाप
आश्चर्य! रावण के अपराधों से हुआ लंका में संलाप।
विभीषण ने किया रावण का अंतिम संस्कार
स्वर्ग से वापस आया, इंद्र का मूल सारथी-मताली
विभीषण आरूढ़ हुए सिंहासन, करते प्रजा से मधुर व्यवहार।
मंदोदरी, अन्य उप-पत्नियों का लोमहर्षक रुदन
हुआ परम शिव-भक्त रावण का भी देहावसान
जो भी था, लंका की माया और अभिमान, परम विद्वान ।
मैंने सांत्वना दी कहकर यह विधाता का विधान
देख लंका की दुर्दशा,बोले मेरे अश्रुपूरित नयन
"अपने मनोरम जीवन,सगे-संबंधियों का बस रखो ध्यान।"
मेरे भगवान की जीत की खबर ले आए हनुमान
पहले से त्रिजटा ने छोड़ा था भविष्य-बाण
होगा तुम्हारे निर्वासन का अंत, मिलेगा फिर से सिंहासन ।
क्यों नहीं तुम छोड़कर अपने काम-तमाम
आए मिलने मुझसे, हे सीता के प्रीतम राम ?
समुद्र-तट, अशोक-वन में पड़े नीरवता के पाँव ।
फिर भेजा विभीषण को लेने मुझे अपने धाम
तुम क्यों नहीं आ गए, हे मेरे राम !
क्या भय,शंका,अंतर्द्वंद्व छा गया तुम्हारे अंतर्याम ?
रावण हारा, विभीषण बना लंका का राजा,
इसलिए क्या राजा विभीषण को भेजा
तुम्हारे वहाँ होने के बावजूद, हे महाराजा ?
इसके पीछे क्या कोई थे राजनीतिक कारण ?
या अपने राजनीतिक औचित्य का निवारण ?
या मैं बन गई लंका का राजनीतिक धन ?
एक राजा ने किया मेरा अपहरण ,
मैं जकड़ी गई उसके बेडी-बंधन ,
नया राजा सौंप रहा, क्या बन गई मैं सामान ?
सरमा ने करवाया मुझे सुगंधित स्नान,दिए नए अलंकरण,नए वसन
होगा एक साल के बाद भगवान राम के साथ मेरा पुनर्मिलन
चाह नहीं मुझे यह शृंगार, चाहती थी तुम्हारी एक झलक,अपने नयन।
क्या आवश्यक थे ये सारे शृंगार-प्रक्षालन ?
क्या सीता अस्वीकार्य थी अपने निर्वासन-वसन ?
या पवित्रता-प्रदूषण की बहस पनपी तुम्हारे मन ?
जैसे-जैसे मेरी पालकी आती गई नजदीक
उमडी वानरों और राक्षसों की भीड़ अधिक
हटा रहे थे विभीषण,सुनाई पड़ी तुम्हारी भीषण धिक !
" विभीषण! क्यों हटा रहे हो यह जन-अरण्य ?
क्या शेष रहा अब इस औरत का पुण्य ?
नहीं बची अब इसकी पवित्रता अक्षुण्ण, अनन्य।
एक औरत की शुद्धता, उसका औचित्य
निर्धारित करता उसका भाग्य !
सीता को जिम्मेदार करेगा इस युद्ध का ऐहित्य ।
सीता-मिलन का स्थान होगा पूर्ण सार्वजनिक ;
और चिंता नहीं मुझे, मैं नहीं हूँ अकेला प्रशंसक
इस नारी की छबि नहीं रही हृदय-विदारक।
मैं उलझन में थी, स्तंभित
खतरे में अचानक मेरी सुरक्षा-संप्रभुता ?
हुई मैं असहाय और भयभीत ।
"सीते ! मैं आज से करता हूँ तुम्हें मुक्त ;
कायर रावण अब हुआ समाप्त ,
की उसने अकेली, असहाय नारी अपहृत ।
हनुमान,लक्ष्मण,सुग्रीव,विभीषण
युद्ध-विजय के पीछे थे जरूर
पर रखना था पुरखों का सम्मान-अक्षुण्ण ।
तुम्हें देखते ही मेरी आँखें भेदती मेरा हृदय
रही तुम अकेली अनेक दिन-रात दूसरे आदमी के निलय
न थे वहाँ कोई वंशज, न पति, देने को रक्षा सदय !
कैसे मानूँ, रावण ने नहीं किया होगा तुम्हारा सतीत्व भंग ?
आखिर आकर्षक है तुम्हारे प्रत्येक अंग !
अब तुम्हारी गरिमा हुई धूमिल और छबि कुरंग ।
ऐसे भी था, तुम्हारे कुल का न अता, न पता
पहले से ही तुम्हारी आधी-अधूरी पवित्रता
अब तुम सती नहीं, हो गई पतिता।
रहती क्या नारी अकेली अपराजित ?
कभी बहती धारा,कभी लता,तो कभी गीत-संगीत
सुरक्षा हेतु पड़ती हर समय एक आदमी की जरूरत ।
राज-गरिमा नहीं बना सकती तुम्हें पत्नी
और नहीं रही तुम बनने योग्य रानी,
जब से पार की तुमने 'लक्ष्मण-रेखा ' की निशानी।
अब तुम हो अपने फैसले लेने के लिए स्वतंत्र
मुझे मत दिखाओ अपना कुत्सित चेहरा, जाओ अन्यत्र
खोजो अपना कोई हमदर्द, रक्षक, प्रदाता या सन्यत्र । ”
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